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हो या न हो रहा हो श्वास का उदय-विलय तो हर समय घटित होता ही रहता है।
हम साँसों पर ध्यान धरकर, साँसों पर सचेतन होकर, साँसों में डूबकर अपने आप में डूब सकते हैं। चेतना स्वयं साँस लेती है। साँस स्वयं चेतना तक पहुँचने का पथ है। हम साँस की हर लहर पर, हर आवागमन में स्थिर हों, संप्रज्ञाशील हों। आत्मदर्शन के द्वार स्वतः खुलने लगेंगे।
कहते हैं- सन्त बालशेम प्रतिदिन नदी किनारे जाया करते थे, वहाँ ध्यान करते । रात में ग्यारह-बारह बजे वहाँ पहँचते और तीन-चार बजे वापस अपनी कुटिया में लौट आते। रास्ते में जंगल भी आता, वहाँ एक राजमहल था। राजमहल के बाहर पहरेदार चौकीदारी किया करते । एक चौकीदार ने सोचा यह कौन व्यक्ति है, जो रोज रात को नदी की ओर जाता है। एक रात उसने उनका पीछा किया कि यह कौन है, क्या करता है, चोरी-छिपे कोई गड़बड़ तो नहीं करता। उसने देखा कि बालशेम तो कुछ करते ही नहीं। बस नदी किनारे जाकर बैठ गए। दो-चार घंटे, जब तक उनका मन करता है, वहाँ बैठते हैं और फिर वापस आ जाते हैं। उसने पंद्रह-बीस दिन तक यही देखा और एक दिन संत को रोक ही लिया, कहा- महाराज, जरा ठहरो । बताएँ आप कौन हैं, क्या करते हैं?
बालशेम चौंके, रुके और बोले- मैं अपना परिचय दूं, इससे पहले तुम अपना परिचय दे दो कि तुम कौन हो। उसने कहा- मैं तो एक पहरेदार हूँ, चौकीदारी करता हूँ, पर तुम कौन हो । बालशेम ने कहा- तुमने ठीक पहचान दी। मैं भी अब तक ढूँढ रहा था- मैं कौन हूँ, पर तुमने ठीक पहचान दी। तुम भी पहरेदार हो और मैं भी एक पहरेदार हूँ। उसने कहा- तुम भी पहरेदार हो, कहाँ की चौकीदारी करते हो । बालशेम ने कहा- तुम किसका पहरा देते हो यह बता दो। वह बोला- मैं तो राजमहल का पहरा देता हूँ। कौन भीतर जाता है, कौन बाहर आता है, इसका ख्याल रखता हूँ। ठीक ढंग से चौकीदारी करता हूँ। बालशेम ने कहा- यही मेरा भी परिचय है, मैं भी ऐसा ही पहरेदार हूँ, ऐसी ही चौकीदारी करता हूँ और देखता हूँ कौन मेरे भीतर जा रहा है और कौन भीतर से बाहर तक आ रहा है। मैं भी अपने इस काया के राजमहल की चौकीदारी करता हूँ। तब पहरेदार ने पूछा- मैं जो चौकीदारी करता हूँ, इसके बदले में मुझे पैसे मिलते हैं, तुम्हें क्या मिलता है ? बालशेम ने कहा- मुझे जो मिलता है, उसे
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