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ने यही तो किया प्रकृति को जानते, समझते रहे। तब ज्ञानी लोगों ने चार अनुप्रेक्षाएँ दी थीं- अनित्य, अशरण, एकत्व और अन्यत्व। प्रत्येक पदार्थ अनित्य है- यह शाश्वत बोध हमें हो जाना चाहिए । यहाँ कोई भी शरणभूत नहीं है। हम सभी यहाँ संयोगाधीन हैं। आज हमारा संयोग है, तो हम यहाँ हैं, कल हो सकता है संयोग टूट जाए और हम चले जाएँ। हममें से किसी का संयोग सनातन नहीं है। हम सभी का जीवन चिड़िया के नीड़ के तिनकों के स्वरूप की तरह है, जो आपस में गुथे हुए हैं, लेकिन कब कौनसा तिनका बिखर जाए या गिर जाए कोई नहीं जानता। इसलिए अनुपश्यना का साधक यह भलीभाँति जान-समझ लेता है कि प्रकृति की इस व्यवस्था में सभी कुछ परिवर्तनशील है। अनित्य है।
बुद्ध का शाश्वत वाक्य है- अणिच्चं। सभी कुछ अनित्य है। महल खंडहर हो जाते हैं, खंडहर फिर महल बन जाते हैं। यहाँ राजा को रंक और रंक को राजा बनते देखा जाता है। दुनिया तो पहिए की तरह है, कब कौन-सी तूली ऊपर आ जाए और कब कौनसी नीची चली जाए, पता नहीं चलता। यहाँ सब कुछ अनित्य है। कल जिस घर में बच्चे के जन्मने पर थाली बज रही थी, आज वहीं पर किसी का जनाज़ा निकलने पर शोक-क्रन्दन है। जिस शरीर पर कल तक गुमान कर रहे थे, आज वही पेरालिसिस के कारण लटका पड़ा है। इसीलिए बुद्ध कहते हैं- अणिच्चं । यहाँ सब कुछ अनित्य है, कुछ भी शाश्वत नहीं। साधक को आतापी होना चाहिए, उसे अपने भीतर अधिक से अधिक साक्षी दशा को विकसित करने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए । मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें आतापी होना है। अगर हम साँस भी ले रहे हैं तो उसके प्रथम छोर से अन्तिम छोर तक जागृत होना है। श्वास लेने के और छोड़ने के मध्य होने वाले परिवर्तनों का साक्षी होना है। श्वास के उदय और विलय के बीच उसके संवेदन, उसके स्वरूप, आकार, प्रकृति, नित्यता और अनित्यता का बोध इनके प्रति साधक की प्रज्ञा का जागना संप्रज्ञाशीलता कहलाती है।
हम अनित्यता के बोध से रूबरू हों। साक्षी दशा का उदय तभी होगा, मोह और मूर्छाएँ तभी टूटेंगी।
श्वास के प्रति जागृति धीरे-धीरे जीवन में प्रत्येक कार्य, अवस्था के प्रति जागृति लाती है। हमारी अवेयरनेस जीवन में बढ़ती जाती है। अन्य कुछ हो रहा
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