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________________ हमारे भीतर हर समय कुछ-न-कुछ हो रहा है। प्रकृति मौन नहीं रहती, कुछ-न-कुछ चलता रहता है, प्रकृति निरन्तर विकासमान है। देह में भी एक का उदय, एक का विलय जारी रहता है। हम एक उदय के विलय को देख भी नहीं पाते कि अचानक चित्त की किसी अन्य धारा में बहने लग जाते हैं, चित्त के साक्षी बन पाएँ इसके पहले ही बाहर में आवाज़ होती है और हमारा ध्यान उधर बँट जाता है। अनुपश्यना करने वाला व्यक्ति उसके भीतर-बाहर जो घट रहा है, उसका अधिक से अधिक साक्षी दशा को साधता रहता है। इसीलिए तीन खास शब्दों पर जोर दिया गया- आतापी, संप्रज्ञाशील और स्मृतिमान । अनुपश्यना और इन तीनों शब्दों को एक साथ जोड़ लेना चाहिए। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह ध्यान रखें अगर इनमें से कोई भी एक शब्द हटा दिया तो बचे हुए शब्द बेकार हो जाएंगे। आतापी- तपने वाला, परिश्रम करने वाला। साधक स्वयं के लिए परिश्रमी नहीं होगा तो अनुपश्यना कैसे होगी। आतापी स्वयं के प्रति होना है। सूरज में नहीं तपना है और न ही पंचाग्नि तप करना है। आतापी वह जो धैर्यपूर्वक स्वयं के प्रति परिश्रम करे। जो हमारे भीतर हो रहा है, उसे साक्षी होकर देखना । चौबीस घंटे हम एक ही भाव या क्रिया में स्थिर नहीं रह सकते। समय-समय पर चित्त बदलता रहता है। आतापी व्यक्ति उस समय देखता और जानता है कि 'यह है' जो उदय और विलय में आ रहा है। अपमान और सम्मान की प्रकृति का उदय होने पर हमें हाकोचु की कहानी याद रखनी चाहिएIs that so ! ओह, तो ऐसा है ! ठीक है। होकोजु पर लांछन लगाया गया कि अमुक युवती के गर्भ में उसका बच्चा है, जो पैदा होने पर उसे रखना होगा । होकोजु ने अपने कर्म की गति जानकर इस अपमान को यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि अच्छा ऐसा है (Is that so) ठीक है। कुछ वर्षों बाद जब लोगों को पता चलता है कि वे गलत थे, उनसे भूल हो गई, तब वे पुनः होकोजु के पास जाते हैं और कहते हैं आपके पास जो बच्चा है, वह आपका नहीं अपितु किसी मछली व्यापारी का है, कृपया आप उसे वापस दे दीजिए। तब भी होकोजु यही कहते हैं- अच्छा ऐसा है। ठीक है। इस समय कर्म की अमुक प्रकृति का उदय है तो ठीक है। यही तो मुक्ति का मार्ग है। इस मार्ग में कभी काया की प्रकृति, कभी चित्त, कभी कर्म, कभी जगत की प्रकृति उदय में आती रहती है। वर्षों वर्ष बुद्ध 60 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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