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उपद्रव, प्रपंच (क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, भोग, वासना) अपनेआप ही शान्त होने लगते हैं। यही तो अनुपश्यना का मार्ग है।
कोई भी मंत्र जाप बहुत देर तक नहीं कर सकते । चित्त भटक ही जाता है। ऐसी स्थिति में किसी मंत्र का जाप या स्मरण करने की बजाय अनुपश्यना में व्यक्ति खुद से ही मुलाकात करता है। जो भीतर हो रहा है, वह उसी का ज्ञातादृष्टा होने का अभ्यास करता है, ज्ञाता-दृष्टा होने का प्रयास करता है। यह अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है, क्योंकि इसमें कुछ भी आरोपण नहीं है, जो है, जैसा है, उसके साक्षी होने की बात करता है। भीतर में अगर क्रोध है, कामनाएँ है, तो कुछ ग़लत या बुरा नहीं है, क्योंकि ये हमारे अपने हैं। व्यक्ति इन्हें जागरूकतापूर्वक देखता है। पहले चरण में घनीभूत पिंड का साक्षीकरण होता है, धीरे-धीरे पिंड में स्थित घनत्व का साक्षीकरण होता है। धीरे-धीरे यह घनत्व भी बिखरने लगता है और एक-एक अणु, एक-एक पुद्गल परमाणु, सूक्ष्म से सूक्ष्म अवस्था का भी वह साक्षी होता जाता है। देखता है, केवल देखता है और जानता है। इस क्षण ‘यह है'।
___ इस क्षण शरीर में सुख के भोग की अनुभूति है या इस क्षण दुःख के भोग की अनुभूति है या इस समय चित्त शांतिमय है अथवा लगता है चित्त में बहुत विक्षिप्तता आ गई है, चित्त विचलित है। ध्यान करने और न करने की दोनों अवस्थाओं में चित्त उद्विग्न बन रहा है। अर्थात् चित्त का वर्तमान क्षण भीतर से पागल बना हुआ है। साधक के पास एक ही बोध होना चाहिए कि वह कुछ करता नहीं है, केवल जागरूकतापूर्वक देख रहा है, जागरूकता को साध रहा है और इस जागरूकता के दौरान जब, जहाँ, जो चीज़ हमारा ध्यान आकर्षित करती है, हमारा ध्यान वहाँ जाता है। दो स्थितियों में ध्यान जाता है- एक तो प्रमाद अवस्था में । भीतर क्या हो रहा है, इसका कुछ पता नहीं चलता, लेकिन होता रहता है, दूसरे में व्यक्ति अप्रमत्त होकर, अप्रमाद दशा के साथ पूर्ण सचेतन है तो शरीर में होने वाले प्रत्येक उदय-विलय को अनुभव करता है। साँस चलती है, दिल की धड़कन होती है, शरीर में जब जहाँ जो हो रहा है, प्रयासपूर्वक ध्यान केन्द्रित करने से हर तरह का उदय-विलाप अनुभव में आता है। एक तो हम काया में प्रयासपूर्वक ध्यान ले जाते हैं, दूसरा अनायास ध्यान साधना है। प्रयासपूर्वक किया गया ध्यान एकाग्रता है और अनायास होने वाली एकाग्रता ध्यान है।
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