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________________ को जीत पाया होगा । सम्भव है क्रोध को दबाता रहा हो, ऐसा भी हो सकता है कि क्रोध तो वह प्रगट कर देता रहा हो, लेकिन अन्य विकारों को भीतर-हीभीतर दबाता रहा हो। ऐसी स्थिति में साधक के सामने प्रश्न है कि वह भोग का रास्ता अख़्तियार करे या अपनी मुक्ति और निर्वाण के लिए विकारों के शमन और निर्जरा के लिए अन्य किसी मार्ग का चयन करे । अनुपश्यना के मार्ग पर चलकर हम अपने अन्दर उठने वाली वृत्तियों के उदय, उनकी प्रकृति, स्वभाव को समझें, क्योंकि वैसा हमारा स्वभाव होता नहीं है, केवल वह स्वभाव से जुड़ जाता है। हर समय एक ही चीज़ हम पर हावी नहीं रहती है। न तो हर समय क्रोध होता है, न ही भोग, न ही ईर्ष्या, न कामनाएँ, न वासनाएँ। लेकिन समयसमय पर ये हमारे अन्दर उठती रहती हैं, क्योंकि इनकी प्रकृति हमारे भीतर दबी हुई है । निमित्त पाकर प्रकृति उदय में आ जाती है । इसकी जड़ें हमारे अन्दर व्याप्त हैं, इसलिए हमें अपनी प्रकृति को समझना चाहिए। इसे हम अनुपश्यना के द्वारा जान सकते हैं । माना कि हमारे अन्दर क्रोध की प्रकृति है, लेकिन उसे प्रगट नहीं कर पाते हैं, तो वह प्रगाढ़ हो जाती है । तब इस तरंग से बाहर कैसे निकलें ? बोधिधर्म चीन की यात्रा पर थे। वहाँ के सम्राट ने उनसे कहा कि उसे क्रोध बहुत आता है, चित्त उद्विग्न हो जाता है । बोधिधर्म ने पूछा- तुम इस समय क्रोध में हो ? सम्राट ने कहा- नहीं। क्या चित्त अभी उद्विग्न है ? उत्तर मिला- नहीं। तब बोधिधर्म ने कहा- यह तुम्हारी प्रकृति नहीं है । तुम्हारा मूल स्वभाव नहीं है । जो चीज़ सदा बनी रहे वह प्रकृति है । ये तो तरंगें हैं, जो निमित्त पाकर उजागर हो जाती हैं और इनसे छूटने का मार्ग अनुपश्यना है । 1 अनुपश्यना में व्यक्ति धैर्यपूर्वक अपने चित्त की, काया की, वेदना और संवेदनाओं को देखे, वह दृष्टा बने, स्वयं का साक्षी बने और समझने तथा जानने का प्रयत्न करे कि उसके भीतर यह क्या है । हमने अतीत में न जाने कितनी बार क्रोध किया, अब भी कर रहे हैं, क्या भविष्य में भी इसी की पुनरावृत्ति होती रहेगी। जब व्यक्ति अपनी प्रकृति को तात्विक दृष्टि से, साक्षी होकर, प्रज्ञाशील और जागरूक होकर देखना और समझना शुरू कर देता है तब वह अपने विकारों का शमन और रेचन करने में धीरे-धीरे सफल होने लगता है । ज्यों-ज्यों बोध गहरा होता है, त्यों-त्यों अपने-आप ही हमारे आन्तरिक 58 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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