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आनापान-योग : समाधि का प्रवेश-द्वार
जीवन को बोध और जागरूकता के साथ जीना, जीने की आध्यात्मिक कला है। अबोध और प्रमाद-दशा के साथ जीना, जीवन जीने की नकारात्मक शैली है। भगवान बुद्ध और महावीर के द्वारा प्रतिपादित अनुपश्यना का सिद्धान्त विशुद्ध रूप से जीवन को जागरूकतापूर्वक कैसे जिया जा सके, इसका पवित्र रास्ता देता है। इस दौरान व्यक्ति क्रोध को दबा जाएगा और दबी हुई चीज़ आज नहीं तो कल प्रगट होगी। स्प्रिंग को जितना दबाया जाएगा, छोड़ने पर उतनी ही उछलकर आएगी। जीवन में उठने वाले भीतरी उपद्रव स्प्रिंग की तरह होते हैं, उन्हें जितना दबाया जाएगा, उनकी ताक़त बढ़ती जाएगी। तब दूसरा रास्ता है कि व्यक्ति अपने विकार, क्रोध, कषाय, भोग आदि को प्रगट करे । हम देखते हैं कि प्रगट करने की भी कोई सीमा नहीं होती। अस्सी वर्ष का व्यक्ति और संन्यासी भी ताउम्र क्रोध करते नज़र आ जाते हैं।
दीर्घ समय तक साधु-जीवन बिता लेने के बाद भी अगर वह अपने क्रोध को नहीं जीत पाया तो क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने बाकी विकारों
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