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जैसे-जैसे हम अपने भीतर साक्षी होते हैं, त्यों-त्यों भीतर में शान्ति आती चली जाती है। जिसका उदय है, उसका विलय अवश्य होता है और तब तक साधक जान लेता है कि सब कुछ यहाँ अनित्य है। न वो था, न यह है, न वो रहेगा, यहाँ सब कुछ बदल रहा है। हम ही राग-द्वेष के निमित्त खड़े करते हैं, बाकी तो यहाँ सब कुछ बदल रहा है। व्यक्ति बदल रहे हैं, विचार बदल रहे हैं, शब्द बदल रहे हैं, वाणी बदल रही है, व्यवहार बदल रहा है, आदतें बदल रही हैं, चरित्र बदल रहा है, जीने के तौर-तरीके बदल रहे हैं, भीतर में उठने वाली तरंगें बदल रही हैं, भीतर के उपद्रव बदल रहे हैं, भीतर के उद्वेग, कषाय, संस्कार सब कुछ यहाँ बदल रहे हैं। इन बदलते हुए तत्त्वों की अनुपश्यना करते हुए साधक भलीभाँति जानता है कि यहाँ सब अनित्य है, परिवर्तनशील है। तब राग-द्वेष को दूर करके अनुपश्यना करने वाला साधक आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञाशील बना हआ विहार करता है, अपना सहज जीवन जीता है, स्वयं के प्रति जागरूक होकर जीवन और जगत में घटने वाली घटनाओं के प्रति जागरूक होकर सत्य से साक्षात्कार का लक्ष्य रखता है, निर्वाण, दुःख-दौर्मनस्य के अवसान से साक्षात्कार के प्रति लगा हुआ रहता है। तब वह जीता है, विहार करता है, आनन्दित रहता है। तब वह मुक्त होकर बाहर और भीतर से जीवन जीता है। साधक को आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञाशील हो जाना चाहिए, ताकि राग-द्वेष हमारे जीवन से मिट सकें और हम वास्तविक सत्य से जुड़ सकें। आतापी, स्मृतिमान, संप्रज्ञाशील अर्थात् सचेतनता- ये तीन शब्द याद रखें, इन्हें आत्मसात् कर लें । ये शब्द नहीं हैं, साधक के तीन नेत्र हैं। हम साधना में तपें, आत्मस्मृति से परिपूर्ण बनें, हर नैसर्गिक-अनैसर्गिक क्रिया को सचेतनता से करें। विपश्यना एक द्वार है, बस क़दम उठाने की जरूरत है।
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