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________________ हमारी इन्द्रियाँ भी प्रेरित और प्रभावित होती हैं। चौथा सत्य धर्म है। मूल शब्द है अनुपश्यना' । बुद्ध और महावीर ने इस शब्द का खूब प्रयोग किया है। बुद्ध ने साढ़े छ: वर्ष तक और महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक जंगलों में क्या किया ? उस सारी स्थिति को एक ही शब्द में पिरोया जा सकता है और वह है 'अनुपश्यना'। ___'अनुपश्यना' अर्थात् विशेष रूप से देखना, लगातार देखना, अपनी प्रकृति के साथ अपनी मुलाकात करना। स्वयं से मुलाकात कठिन होती है, क्योंकि हमारा चित्त बाहर से मुलाकात करने के लिए तत्पर हो जाता है और हम बाहर चले भी जाते हैं, लेकिन फिर-फिर मन को, चित्त को अपने में लाते हैं और स्वयं से मुलाकात करने में तत्पर होते हैं। हमारी इन्द्रियों के रास्ते बाहर की ओर खलते हैं। मन की गतिविधियाँ बाहर चलती हैं। इन इन्द्रियों को स्वयं से जोड़ने के लिए, अपने भटकते हुए चंचल चित्त को अन्दर लाने के लिए स्वयं से प्रतिक्रमण करना होगा, स्वयं में लौटना होगा। लगातार' शब्द बहुत मूल्यवान है। विद्यार्थी को विद्यार्जन करने के लिए लगातार अध्ययन करना होगा। लगातार लगे रहने पर मंदबुद्धि और जड़बुद्धि भी महाकवि कालीदास और उद्भट विद्वान बन सकता है। पैसा कमाना भी कोई सरल काम नहीं है, लेकिन व्यापारी लगातार सुबह से रात तक लगा रहता और कमाई कर पाता है। केवल बुद्धि या लक्ष्य निर्धारित कर लेने से ही कमाई नहीं हो जाती। इसके लिए 'लगातार' मेहनत करनी होती है। केवल आत्म-विश्वास जगाने से सफल नहीं हुआ जा सकता, न ही कार्य-योजना बना लेने से सफलता मिलती है। सफलता का आधार बिन्दु है 'लगातार' लगे रहना। व्यापारी सफल होगा लगातार तत्पर होने से, विद्यार्थी सफल होगा लगातार विद्याध्ययन करने से । जमीन में छिपे हुए पानी को निकालने के लिए लगातार गड्ढा खोदना होगा। पत्थर भी नज़र आएँगे, उसके उपरान्त भी खोदते रहने पर ही पानी निकलेगा। साधना के लिए भी लगातार शब्द पहले । अगर हम लगातार करने के लिए तैयार नहीं हैं तो कभी भी आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञाशील नहीं बन पाएँगे। घंटेभर के लिए संप्रज्ञाशील होकर घंटेभर जितना ही परिणाम निकाल पाएँगे। आधा घंटा ध्यान कर लेने पर कुछ खास हासिल नहीं हो पाएगा। कुआँ खोदना है तो लगातार खोदना ही पड़ेगा। 'लगातार' की चाबी पकड़ लेने पर कदम-दर-कदम आगे बढ़ते जाएँगे। 155 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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