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करते हुए सोई हुई चेतना को जगा देता है, भटकी हुई चेतना को फिर से सम्यक् मार्ग प्रदान कर जाता है।
जिन्हें चेतना की प्यास है, उन्हें इस मार्ग पर आने का आमंत्रण है। ‘महासति पट्ठान सुत्त' में भगवान बुद्ध ने अपने साधकों से इसी प्यास को बुझाने वाले संदेश कहे थे। यह अत्यन्त छोटा शास्त्र है। लेकिन इसमें साधना की वह गहरी पद्धति दी गई है, जो हमें प्रत्येक दिन के, प्रत्येक क्षण के वर्तमान सत्य से मुख़ातिब करवाती है। इस पद्धति में ऊँची या लम्बी-चौड़ी बातें नहीं हैं, वरन् खुद से खुद की मुलाक़ात है। आइए, हम लोग बुद्ध के नज़दीक जाकर अपने अन्तर-कमल को उनके श्रीचरणों में इस सद्भाव के साथ समर्पित करते हैं कि उनके बुद्धत्व की किरण हमें भी रोशन करे, हमें भी सुगंधमय बनाए, हमें भी खिलने का अवसर प्रदान करे ।
बुद्ध ने पवित्र वाणी कही- 'यहाँ कोई साधक साढ़े तीन हाथ के कायारूपी लोक में, राग और द्वेष को दूर कर, आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन काया में कायानुपश्यी होकर विहार करता है, वह राग और द्वेष को दूर कर आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन वेदनाओं में वेदनानुपश्यी होकर विहार करता है, राग और द्वेष को दूर कर आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन चित्त में चित्तानुपश्यी होकर विहार करता है और वह राग और द्वेष को दूर कर आतापी, स्मृतिमान और संप्रज्ञानी बन धर्मों में धर्मानुपश्यी होकर विहार करता है।'
भाषा पुरानी है, लेकिन इसके भावों में साधना की ढेर सारी बारीकियाँ समाई हुई हैं। साधक के सामने चार सत्य हैं, पहला सत्य है- उसकी काया, दूसरा सत्य है- काया में उठने वाली वेदना और संवेदना अर्थात् काया में उठने वाले उपद्रव, काया के प्रपंच। साधक के सामने तीसरा सत्य है- उसका अन्तरमन, उसका चित्त, चौथा सत्य है- भीतर का धर्म । जब कोई साधक इन चार सत्यों से साक्षात्कार करता है, तब इनसे वह अपने मूल अस्तित्व और अपनी अन्तरात्मा से सेतु सम्बन्ध स्थापित करता है।
काया स्थूल तत्त्व है। जब इससे सूक्ष्म की ओर जाते हैं, तब काया की वेदनाओं का अनुभव ज्ञान में आता है। अधिक गहराई में जाने पर चित्त से परिचित होते हैं, जिससे प्रेरित होकर काया समस्त व्यापार किया करती है। चित्त की प्रेरणा से ही काया की समस्त गतिविधियाँ संचालित होती हैं। चित्त से ही 154
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