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________________ जाओगे, मेरे लिए तो क्रोध करना नर्क में ही होना है। प्रेम करने से स्वर्ग मिलेगा- ऐसा नहीं है। मेरे लिए तो प्रेम करना स्वर्ग में होना ही है। अर्थात् ऐसा करने से ऐसा होगा, यह भाषा कहने की बजाय हम कहेंगे ऐसा करने से ऐसा होता है । यह हमारा यथार्थ है। क्रोध किया अर्थात् दिल जला, दिमाग कमजोर हुआ, आँखें लाल हुईं, तन की ताजगी कटी अर्थात् जितने प्रतिशत क्रोध किया, उतने प्रतिशत नर्क का फल उपलब्ध हो गया और जितने लोगों से मिठास के साथ पेश आए, जितने लोगों के साथ आतिथ्य-सत्कार का भाव रखा, जितने लोगों को प्रणाम कर आशीर्वाद लिए, उतने-उतने प्रतिशत स्वर्ग का आनन्द स्वयं ने भी लिया और दूसरों को भी हमसे मिला। मेरे लिए तो यही स्वर्ग और नर्क है। हम किसी पाताल में बने नर्क से बचने की बजाय हमारे अन्दर क्रोध, रोष, भोग. विकार-वासना के रूप में जो नर्क पल रहा है, उसमें बहने से बचें, उसमें जलने से बचें। हम तो नन्दनवन की तैयारी करें। ऐसा नन्दनवन, जहाँ महावीर ने संन्यास लिया था, जिसे स्वर्ग के उपवनों की उपमा दी गई। उस वन में प्रविष्ट हो जाएँ, जहाँ महावीर की ही तरह संन्यासी होने की प्रेरणा मिल सके। जिस रास्ते पर चलने से आध्यात्मिक कल्याण का रास्ता खुल सके, वही वन नन्दनवन हो जाएगा। इंग्लिश का शब्द है 'वन' (One) अर्थात् एक। विपश्यना यही तो सिखाती है कि एकला चलो रे । यह अकेले होकर चलने का रास्ता है। कोई साथ चले तो स्वागत और न भी चले तो एकला चलो रे। 'यदि तोरे डाक सुने कोई न आसे तो एकला चलो रे।' रवीन्द्रनाथ टैगोर की ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं कि अगर तुम्हारी पुकार सुनकर भी कोई तुम्हारे साथ चलने को तैयार न हो तो चिन्ता मत करो, तुम अकेले ही चल पड़ो। हो सकता है, आज तुम अकेले हो, लेकिन आने वाले कल का सूरज तुम्हारा साथ दे सकता है। पूरे ज्योतिर्मय संघ का निर्माण हो सकता है। यह मार्ग जो ‘महासति पट्ठान' का है- भगवान बुद्ध द्वारा दिया गया महान संदेश है। भगवान बुद्ध ने अपने साधकों और श्रावकों को विपश्यना के सन्दर्भ में जो उपदेश दिया हम भी इन सूत्रों में डूबेंगे, इनका आनन्द लेंगे, इनमें से अपने लिए कोई रसधार निकालेंगे। जैसे हजारों वर्ष पूर्व साधकों ने इस मार्ग पर चलकर परम सत्य से साक्षात्कार किया था, अपने दुःख और दौर्मनस्य का अवसान किया था, स्वयं को विकारमुक्त किया, ऐसे ही हम लोग भी मुक्त हो 50 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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