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सकते हैं। हम भूल जाएँ कि कौन यहाँ बैठा है और कौन किससे क्या कह रहा है। हम बस याद रखें, उस शरद की रात्रि को, मन्द बयार को और बुद्ध के मुख से झरते वचनों को, जो जीवन-कल्याण के आत्मसंवाद हमारे साथ हो रहे हैं। जैसे शरद की चाँदनी सबको सुहाती है, वैसे ही यह मार्ग भी हम सबको सुहाएगा। लोग तो पति-पत्नी के साहचर्य को हनीमून समझते हैं, पर मैं कहता हूँ कभी किसी बुद्ध के साथ, किसी महावीर के साथ, किसी गुरु या सद्गुरु के साथ बैठकर भी हनीमून मनाओ। तब पता चलेगा एक शहद टपकाता चाँद, ज्ञान का शहद टपकाता चाँद हमारे जीवन में अद्भुत मिठास, अद्भुत रस, अद्भुत प्रेम और अद्भुत अन्तर्दृष्टि संचारित कर रहा है।
यह मार्ग थोड़ा कठिन अवश्य है, पर दुरुह नहीं है। मुझे लोग बताते हैं कि कभी-कभी तो साधना की भूमिका बहुत गहरी हो जाती है और कभी खुद ही ठंडे पड जाते हैं। मैं समझता हूँ. ऐसे ठंडे लोगों के लिए ही ये बातें हैं। जो लोग भीतर से गरम हो चुके हैं, यह वाणी उन्हें ठंडा करेगी और जो भीतर से ठंडे हो चुके हैं, यह वाणी उनकी सोई हुई चेतना को, आत्मा को जगाएगी। उत्साह की नई ऊर्जा जगाएगी। हम जानते हैं गौतम ने संन्यास स्वयं ग्रहण कर लिया और जंगलों में प्रतिदिन चावल का एक दाना खाकर अपने दिन व्यतीत करने लगे। उन्होंने इतनी सघन तपस्या की कि अस्थियों का ढाँचा मात्र रह गए। व्यक्तिगत रूप से मैं इस तरह की तपस्या में विश्वास नहीं करता कि जिसमें व्यक्ति अपने तन को सुखाने में ही तत्पर करे । मेरा मानना है कि तप का उद्देश्य अपने अन्तरमन को तपाना है। अपने इन्द्रिय-द्वारों को तपाना, मन में रहने वाले कषायों को तपाना ही सच्ची तपस्या है। हमारे भीतर जो कर्म-बीज बनते रहते हैं, उन्हें भून (जला) डालना- इसका नाम तपस्या है। लेकिन हम लोग मन की तपस्या नहीं, तन की तपस्या करते रहते हैं। जब मैं किसी साधक को तन की तपस्या करते हुए देखता हूँ तो मन में भाव उठते हैं कि ईश्वर इसे सद्बुद्धि दे कि वह केवल तन को नहीं अपने मन को, अपनी आत्मा को तपाकर दिखाए । तन तो साधन है, लेकिन असली तपस्या तो मन की करनी है। __मैं अमुक दिन 24 घंटे तक क्रोध नहीं करूँगा, यह मन की तपस्या हुई। चाहे तो आप भी कर सकते हैं कि मैं हर अमावस और पूर्णिमा को उपवास करूँगा, पर उपवास भोजन के त्याग का नहीं, क्रोध के त्याग का । भोजन के त्याग का उपवास हर कोई नहीं कर सकता, पर क्रोध के त्याग का उपवास हर
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