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जाएँगे। इस गफ़लत में न रहें। बीज बोते ही पेड़ नहीं उगता। हमें बीज बोना होगा, सींचना होगा, रखवाली करनी होगी। हमारे भीतर राग-द्वेष की इतनी गहरी पथरीली पर्ते जमी हुई हैं कि उन्हें धीरे-धीरे समझकर उघाड़ना होगा। एक दिन में ही सब कुछ नहीं होने वाला है। धीरे-धीरे स्वयं से मुलाकात करेंगे और विपश्यना के अर्थबोध को जगाए रखेंगे।
यहाँ साधक को आतापी होना होगा, साधना की गहराइयों में तपना होगा। अपनी स्मृति को, बोध को लगातार स्वयं के साथ जोड़ना होगा। दुःखदौर्मनस्य, विकार-वासनाएँ सभी शान्त और विलीन होते जाएँगे- जैसे-जैसे हम शान्त और अन्तर-विलीन होते जाएँगे। यदि साधक के चित्त में इनके उपद्रव उठते हैं, तो इसका मतलब है, हम अभी तक शांति को गहराई तक नहीं साध पाए, गहराई तक नहीं उतार पाए। जैसे-जैसे संकल्प-विकल्पों की हवाएँ शान्त होंगी, भीतर में तरंगायित होने वाली क्रोध, विकार, भोग की लहरें भी शान्त होती जाएँगी।
यह धीरज का मार्ग है, यह शमन का मार्ग है, शान्ति का मार्ग है। यह होश और बोधपूर्वक जीने का मार्ग है। बस, आतापी बनो, एक ही बोध रखो कि मैं शान्त हो रहा हूँ, शान्ति में प्रवेश कर रहा हूँ, चित्त को शान्त कर रहा हूँ। उपशमन का भाव गहरा होते ही सब कुछ शान्त हो जाएगा। तब सहज स्वानुभूति का वातावरण तैयार हो जाएगा।
कहते हैं- बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य से कहा, 'आनन्द ! ज़रा अमुक झील से पानी ले जाओ, ग्रहण करेंगे।' आनन्द झील पर गया, पर झील से अभीअभी बैलगाड़ी गुजरकर गई थी, सो पानी गंदला था। वह वापस लौट आया। उसने कहा, 'भगवन् ! क्या दूसरे सरोवर से पानी ले आऊँ ?' बुद्ध ने कहा, 'पानी उसी से लाना है। थोड़ी देर बाद ले आना।' आनन्द वापस गया, पर उसे लगा पानी इतना निर्मल नहीं है कि भगवान की सेवा में समर्पित किया जा सके। वह पुनः लौट आया। बुद्ध ने संध्याकाल में फिर आनन्द से कहा, 'ज़रा पुनः जाओ और जल ले आओ।' आनन्द इस बार जल लेकर आया, क्योंकि पानी अब तक पूर्ण निर्मल हो चुका था। पानी पीते हुए बुद्ध ने कहा, 'क्या कुछ समझे ?' शिष्य ने कहा – 'मतलब ?' बुद्ध ने जवाब दिया, 'वत्स ! झील की तरह ही हमारा मन है, चित्त है, यह भी भीतर-बाहर गुजरती बैलगाड़ियों के कारण दूषित है, पर यदि विपश्यी साधक भीतर का ध्यान करते हुए धैर्य धारण
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