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सकेगी, ध्यान भी न होगा। तब आपके लिए पूजा, प्रार्थना, भक्ति, जप, जाप का मार्ग ही उचित रहेगा। विपश्यना तभी परिणाम देगी, जब हम अपने चित्त को, अपनी अन्तरात्मा को, अपनी बुद्धि और अपनी प्रज्ञा को जागरूकता और होशपूर्वक उसके साथ जोड़ेंगे, एकरूप करेंगे, एकलय करेंगे।
हम लोग दीपक और टॉर्च के बारे में जानते हैं। दीपक का प्रकाश चारों ओर फैलता है और टॉर्च का प्रकाश एक बिन्दु को प्रकाशित करता है। जब हमें किसी बारीक चीज को ढूँढना होता है तो हम टॉर्च का उपयोग करते हैं। माना कि दीपक का प्रकाश चारों ओर प्रकाशित होता है, लेकिन अगर हमें विपश्यना करनी है तो हमें अपनी सचेतनता और जागरूकता को टॉर्च की तरह, किसी प्रकाश-रेखा की तरह उपयोग करना होगा, होश और बोध को केन्द्रित करना होगा। विपश्यना करते हुए हमें स्वयं को स्वयं में प्रतिष्ठित करना है।
विपश्यना पल-पल जागने का मार्ग है। जागरूकता और भटकाव साथसाथ नहीं चल सकते। सागर में लहरें और चित्त में संस्कार उठना सहज प्रकृति है, लेकिन इससे परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। इसे भी प्रत्यक्ष अनुभूति में लाना है, इसे जानना है बिना प्रतिरोध के, तभी हम इससे मुक्त हो सकेंगे। बाधा डालने से यह बार-बार आंदोलित होगा। इसलिए बिना विचलित हुए अपनी हर धारा के प्रति जागें। यही विपश्यना है। विपश्यना आपको वर्तमान में उदयविलय का साक्षी बनाती है। न भूत, न भविष्य, जो है, वह आज अभी इस वर्तमान क्षण में है। विपश्यना में व्यक्ति जो हो रहा है, उसके प्रति अपने साक्षी भाव को विकसित करने का अभ्यास करता है। प्रयास नहीं, अभ्यास ! क्योंकि बात एक ही दिन में नहीं सधेगी। महावीर प्रभु को भी साढ़े बारह वर्ष में अपनी अनुपश्यना-विपश्यना का परिणाम प्राप्त हुआ था। भगवान बुद्ध भी छः वर्ष में विपश्यना की परिणति पा सके थे। खूब तपाया स्वयं को, भूखे रहे, अत्यन्त अपरिग्रह और त्याग को जिया, तब भी साढ़े छः वर्ष लग गए। हम लोग जो तप-त्याग करते हैं, वह केवल स्वयं को सांत्वना देना है। हम तो उपवास एकासन में मन को राजी कर लेते हैं कि आज हमारा व्रत है। जरा उन तपस्वियों के बारे में सोचें, जिन्होंने गहन तपस्याएँ की और खाने को क्या मिला ? उड़द के बाकुले ! भगवान महावीर को साढ़े पाँच माह की तपस्या के बाद यही तो खाने को मिला था न् ! और हम जीभ के स्वाद के पीछे भागे जाते हैं।
___ ऐसा न सोचें कि आज विपश्यना प्रारम्भ की और कल हम सिद्ध-बुद्ध हो 42||
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