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होगा। स्वयं में दत्त-चित्त करना होगा। फिर यह कार्य चाहे आँखें खोलकर करें या बन्द करके। अगर आँखें खोलकर करते हैं तो जागरूकतापूर्वक प्रत्येक गतिविधि को संचालित करना होगा। पलकें झुकाकर अगर भीतर की विपश्यना करेंगे तो स्वयं के प्रति जागरूक और सचेतन होना होगा, क्योंकि स्वयं से मुलाकात करनी है। धैर्यपूर्वक स्वयं से जुड़ना होगा। जो जागे सो पावे, जो सोवे सो खोवे । जो स्वयं के प्रति जाग्रत होता है, वही स्वयं को प्राप्त करता है।
ध्यान करते हए अगर एक पल का भी प्रमाद आ गया तो आपकी विपश्यना व्यर्थ हो गई। ऐसी दशा में आप खड़े हो जाएँ और अपने प्रमाद को, बेहोशी को दूर करें और स्वयं को देखें कि आप कहाँ लटक गए। साधक की पहली ताकत, पहली बैसाखी, पहली शक्ति, पहली आँख और पहला गुरु अप्रमाद है। प्रमाद के साथ कोई भी साधना के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकता है। अप्रमाद साधना का अनिवार्य तत्त्व है। माना कि साधक के भीतर लक्ष्य है, अध्यात्म के प्रति रसरंग है, स्वयं के सत्य को जानने के प्रति गहरी प्यास, गहरी मुमुक्षा है, लेकिन इनसे भी अधिक ज़रूरी है हमारा अप्रमाद । स्मरण रहे, आलस्य, प्रमाद, मूर्छा या बेहोशी के साथ साधना करने पर निरन्तर जागरूकता न रह सकेगी और हमारा चित्त कहीं और भटक जाएगा। विपश्यना का अर्थ ही है – भलीभाँति, जागरूकतापूर्वक देखना, देख-देखकर पुनः पुनः देखना, अपने-आप से अपनी अनुभूति को जोड़ना।
जब आप आइना देख रहे हैं, उसमें स्वयं को निहार रहे हैं, कि तभी अचानक आपके मन में शृंगार करने का भाव आ जाए तो आपके चित्त की धारा स्वतः शृंगार की ओर बह जाएगी। तब भले ही आप दर्पण के सामने हों, पर शृंगार के भाव उठने लगेंगे। विपश्यना में हमारी काया नहीं, चित्त या मन ही विश्राम करता है। ऐसे में अगर मन भटकने लगे तो विश्राम नहीं हो पाता। सोचें विपश्यना सोए-सोए होगी या जागकर ? सामान्य रूप से देखने के लिए भी
आँख लगानी होती है और विशेष रूप से देखने के लिए तो पूरी जागरूकता रखनी होती है। जब काँटा चुभ जाए, तब भी पूरा ध्यान लगाकर हमें देखना पड़ता है तो हमारे अन्दर जो उपद्रव उठते हैं, राग-द्वेष के संस्कार, संकल्पविकल्प के विचार उठते हैं, उन्हें देखने के लिए, जानने और बाहर निकालने के लिए बाह्य जागरूकता से कई गुना अधिक भीतर की जागरूकता के लिए तत्पर होना होगा। अपने प्रति दत्त-चित्त होकर जागरूक हुए बिना विपश्यना न हो
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