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________________ नहीं। संगीत गहन होता गया, यहाँ तक कि लोगों की श्वास रुक गई और तभी अचानक संगीत बन्द हो गया। उसने नज़र उठाई और देखा कि लोग बुतों की तरह बैठे हैं, फिर भी कुछ लोगों की गर्दन धीरे-धीरे हिल रही है। संगीत के रुकते ही राजा ने भी लोगों की ओर देखा उसे भी वही नज़ारा दिखाई दिया। कुछ लोग तल्लीन हो गए हैं, मस्ती ले रहे हैं और गर्दन भी हिला रहे हैं। संगीतकार ने कहा ये जो कुछ लोग हैं, इन्हें अलग ले जाया जाए। उन लोगों का ध्यान टूटा, वे चौंके, अरे ! हमने यह क्या कर दिया। शेष लोगों को रवाना कर दिया। सभी विचलित हो गए कि राजाज्ञा तो हम भूल ही गए, अब हमारी गर्दन अलग कर दी जाएगी। जैसे ही गर्दन अलग करने के लिए सैनिक आया, संगीतकार ने कहाठहरो । उसने बताया कि मैंने कहा था कि जो लोग सिर हिलाएँ उनके सिर कलम कर दिए जाएँ फिर आप लोगों ने सिर क्यों हिलाए। उन लोगों ने बताया- हम सोच कर बैठे थे कि किसी भी हालत में अपनी गर्दन नहीं हिलाएँगे, लेकिन संगीत की गहराई में, उसकी मधुरता में इतने तल्लीन हो गए कि हमें पता भी न चला कि कब गर्दन हिलने लगी। पूछा गया कि वे राजाज्ञा को भी भूल गए। उत्तर मिला कि राजाज्ञा का भी कोई बोध न रहा, हम तो संगीत में इतने डूब गए कि सब कुछ भुला बैठे। राजा ने कहा- इन लोगों की गर्दन उड़ा दी जाए। संगीतकार ने कहा- ठहरो ! राजन् ये ही वे पात्र हैं, जो मेरे संगीत को सुनने की वास्तविक क्षमता रखते हैं। अरे वह संगीत ही क्या जिसे सुनकर व्यक्ति दुनिया को न भुला सके, जिस संगीत को सुनकर व्यक्ति अपने प्राणदंड की राजाज्ञा ही भुला दे। संगीत वही सार्थक है, जिसमें लयलीन होकर व्यक्ति सब कुछ भूल जाए। ऐसा संगीत सुनने का हकदार भी वही व्यक्ति है, जिसे कुछ भी सुध-बुध न रहे। कहते हैं तब उस संगीतज्ञ ने अन्य लोगों को विदा कर दिया और इन चुनिंदा लोगों के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ संगीत प्रस्तुत किया। विपश्यना भी एक ऐसा ही मार्ग है, जिसमें स्वयं को संगीत की तरह लयलीन कर लेना होगा। विपश्यना की जागरूकता में, साधना में, स्वयं की आत्मस्मृति में जो लयलीन हो गया कि जिसे अन्य किसी बात की सुधबुध ही नहीं रही, वही वास्तव में इस मार्ग का सच्चा पथिक हो सकेगा। यह वह मार्ग है, जिसमें स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति के लिए, स्वयं की सच्चाइयों से मुख़ातिब होने के लिए, स्वयं की प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए अपने को लगाना 1401 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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