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की ऊष्णता या शीतलता महसूस होगी और अनुकूल या प्रतिकूल संवेदन का अनुभव होगा। संवेदना की गहनता से हमें पता चलेगा कि यह द्रव किस पदार्थ का है। तब उसमें वनस्पति की गंध, सम्बन्ध अनुभव होगा । वनस्पति के जीवन का तत्त्व नज़र आएगा और तब एक आत्मीय भाव उमड़ेगा और जब मुँह में एक छूट रखेंगे, तब हमारे भीतर के प्रत्येक अणु में उस स्वाद की अनुभूतियाँ महसूस होंगी। यह गहरी विपश्यना की परिणति होगी।
विपश्यना का एक दूसरा रूप है – विपश्यना चंक्रमण । चंक्रमण का अर्थ है चलना अर्थात् चलते हुए विपश्यना करना। विशेष रूप से जिस दिन पूर्णिमा की रात हो आप उस दिन किसी एकांत पगडंडी या घर की छत का चयन कर लें
और चाँद की रोशनी में विपश्यना चंक्रमण करें। बीस से तीस मिनिट तक वहाँ टहलें । इस टहलते समय हम जो पाँव ज़मीन पर रख रहे हैं, उस पाँव के ज़मीन से हो रहे स्पर्श को महसूस करें। हम अपना पाँव आहिस्ता से रखें और आहिस्ता से उठाते हुए आगे बढ़े कि हमें ज़मीन के स्पर्श का भी अनुभव हो । पाँव में होने वाली विशिष्ट संवेदनाओं का भी अनुभव हो। यह आँख खोलकर की जाने वाली विपश्यना है। इसमें हम अपनी सचेतनता को जोड़ रहे हैं। महावीर ने इसे ही समिति और गुप्ति कहा, बुद्ध इसे विपश्यना चंक्रमण कहते हैं । साधना में ऐसे ही गहराई आती है, बस लयलीन होने की, स्वयं को तल्लीन करने की ज़रूरत है।
मैंने सुना है, हैदराबाद के निज़ाम के मन में यह इच्छा जाग्रत हुई कि वह लखनऊ के प्रसिद्ध संगीतकार का संगीत सुने। उसने उन्हें आमंत्रित किया, लेकिन संगीतकार ने शर्त रखी कि वह आ तो जाएगा, लेकिन उसका संगीत सुनते हुए कोई भी ताली न बजाए और न ही सिर हिलाए। अगर किसी ने ऐसा किया तो उसका सिर कलम करना होगा। निज़ाम के मन में बार-बार तमन्ना उठती थी कि वह उस संगीतकार का संगीत सुने । निज़ाम ने उसकी शर्त कबूल कर ली और घोषणा भी करवा दी कि जो भी व्यक्ति संगीत सुनने आए वह उस संगीतकार की शर्त पर ही आए अन्यथा इसे राजाज्ञा का उल्लंघन माना जाएगा और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा।
कई लोग जो उसका संगीत सुनने में रुचि रखते थे, फिर भी मरने के डर से न आए । लेकिन कुछ रसिक श्रोता फिर भी आए और ऐसे बैठ गए मानो मन्दिर में मूर्ति हो । संगीत शुरू हुआ। लोग पत्थर के बुत की तरह बैठे रहे, हिले भी
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