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________________ हर पल परिवर्तनशील है। व्यक्ति, विचार, शब्द, परिस्थितियाँ, खाना-पीना, भोग, देह, व्यवस्थाएँ, प्रकृति, जगत – यहाँ तो सभी परिवर्तनशील हैं। इस परिवर्तनशीलता का हमें प्रत्यक्ष अनुभूति में ज्ञाता होना है। परिवर्तनशीलता का गुणधर्म समझ में आ गया तो समझो अध्यात्म की बाजी जीत ली। समता और समरसता स्वतः आ गई । इसलिए यह मार्ग कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं करता। बस जो है, उससे मुलाकात करवाता है। जो हमें प्रत्यक्ष अनुभूति में आ रहा है, उससे मुलाकात करना है। उसके प्रति स्वयं को जागरूक करना होता है। सत्य जैसा है, तत्त्व जैसा है, प्रकृति जैसी है, उसे होश और बोधपूर्वक जानते रहना है। आत्यंतिक रूप से जानना है। विपश्यना तीन चरणों में की जा सकती है – एक- हम अपने जीवन की दैनिक गतिविधियों को, जैसे- खाते-पीते, चलते-फिरते, संचालित करते हुए विपश्यना कर सकते हैं। माना कि हम खाना खा रहे हैं तो जागरूकतापूर्वक, भलीभाँति उसे देखते हुए खा रहे हैं, तो वह भोजन करना भी विपश्यना ही कहलाएगा। अभी तो हम कैसे खाते हैं, आप जानते हैं। सामने थाली रखी है, षट्रस व्यंजन हैं, पर खाने के साथ गप्पें चल रही हैं, व्यापार हो रहा है, फोनमोबाइल सुने जा रहे हैं, टी.वी. के आगे बैठ गए हैं, क्रिकेट मैच हो रहा है, कोई सीरियल देखा जा रहा है और साथ में भोजन भी हो रहा है। पत्नी ने बड़े मन से आपकी पसंद का भोजन बनाया है, पर आपको कुछ पता नहीं चल रहा । जैसेतैसे पेट में उड़ेल रहे हैं। यह भी कोई भोजन करना हुआ । न स्वाद का आनन्द, न भोजन के प्रति होश और बोध । अगर आप चल रहे हैं और प्रत्येक कदम को जागरूकतापूर्वक रख रहे हैं तो कह सकते हैं कि विपश्यना की जा रही है। तब आपका मनोयोग, काययोग, प्रज्ञा, बुद्धि और जागरूकता भी उससे जुड़ी हुई होगी। कभी-कभी अपने हाथ में एक गिलास जूस या शर्बत या दूध ले लो और कहीं एकांत में बैठ जाओ और पन्द्रह मिनिट तक धीरे-धीरे उसे पीओ। उसका एक-एक बूंट बड़ी मधुरता और स्वाद के साथ विपश्यना करते हुए पियो । इस सेवन करने की, ग्रहण करने की विपश्यना में पहली बार आपको रस और वस्तु की वास्तविक स्थिति का पता चल पाएगा। पहले पहल आपको गिलास, प्याला और द्रव दिखाई देगा। आपको पिंड नज़र आएगा, लेकिन ज्यों-ज्यों विपश्यना गहरी होगी, अस्तित्त्व का सारा सम्बन्ध उसमें नज़र आने लगेगा। जब प्याला होंठों से लगाया तो द्रव 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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