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________________ मार्ग हमें जीवन के वास्तविक धर्म से परिचित कराता है। विपश्यना का मार्ग स्थूल से सूक्ष्म की ओर, बाहर से भीतर की ओर ले जाने वाला मार्ग है। बाहर की अशांति को मिटाकर भीतर की शांति को उदय करने वाला मार्ग है। होश और बोधपूर्वक बोधिलाभ के साथ अपने जीवन को जीने का मार्ग है। जब हम इस मार्ग पर चलने के लिए तत्पर हो रहे हैं तो हमें बाहर की स्मृतियों को, बाहर के सम्बन्धों को, बाहर की मुलाकातों को, बाहर के रस, रंग, राग को कम करने के प्रति जागरूक हो जाना चाहिए, क्योंकि यह मार्ग विशुद्ध रूप से स्वयं से साक्षात्कार करने का मार्ग है । यह हमारे भीतर पलने वाले दुःख-दौर्मनस्य के अवसान का मार्ग है। हमारे भीतर रहे हुए वैर-विरोध के समाप्तिकरण का मार्ग है। यह हमें बाहर के भटकावों से हटाकर अन्तर्यात्रा के लिए तत्पर करता है। यदि हम लोग बाहर के रस, रंग, राग में रुचि लेते रहे तो अपने वास्तविक सत्य से मुलाकात नहीं कर पाएँगे। हमें बाहर के आकर्षण से मुक्त होकर भीतर के आकर्षण में जाना है। विपश्यना- पलकों को झुकाकर या पलकों को खोलकर भी की जा सकती है। दूसरे मार्गों में विरोधाभास भी हो सकता है, लेकिन मैं इसे बिल्कुल सीधा सरल मार्ग मानता हूँ। इस साधना-पद्धति में कहीं कोई बाधा नहीं है, जो है बस उसे जान रहे हैं, उसके प्रति जाग रहे हैं, स्मृतिमान हो रहे हैं। बस, यही इस मार्ग की सबसे बड़ी विशेषता है। जो है, जब इससे अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति जोड़ रहे हैं, उस दौरान चित्त में कोई अवरोध आ गया, चित्त भटक गया, तब भी यह मार्ग यह नहीं कहता कि तुम्हारा चित्त भटक गया है तो इसे बार-बार कंट्रोल करो। यह मार्ग बताता है कि तुम केवल साँसों पर ध्यान धरो । इस बीच अगर कोई तत्त्व आकर्षित कर ले तो यह मत समझो कि तुम भटक गए हो, बल्कि यह देखो कि तुम्हारा चित्त किस तत्त्व के प्रति आकर्षित हुआ। जिसने भी तुम्हारे चित्त को आकर्षित किया है, उस तत्त्व के प्रति अब तुम जाग जाओ। तुम तब तक जगे हुए रहो जब तक कि तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी जागरूकता पुनः स्वतः ही श्वासों पर केन्द्रित न हो जाए। यह मार्ग एकाग्रता का मार्ग नहीं है। यह तो सीधे तरीके से जो कुछ हो रहा है, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करने की सलाह देता है। जीवन में न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है, न कुछ उचित है और न कुछ अनुचित है। यह मार्ग हमें बताता है कि अनुकूलता में राग और प्रतिकूलता में द्वेष मत करो, क्योंकि दोनों ही दो पल की अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं । यहाँ तो 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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