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________________ या अदृश्य वस्तुओं से नहीं जुड़ते हैं, जिन्हें अभी देखा या जाना नहीं है। यह मार्ग हमें ऐसे तत्त्वों से जोड़ता है, जो हमें अपने सत्य से मुलाकात करवाता है। यह मार्ग हमें अपने वर्तमान सत्य से मुखातिब करवाता है। जिनकी प्रत्यक्ष अनुभूति हो सकती है, उन तत्त्वों से यह मार्ग हमें जोड़ता है। यह मार्ग सत्य से साक्षात्कार करने का मार्ग है। चाहे पतंजलि का राजयोग हो, महावीर की अनुपश्यना हो या बुद्ध की विपश्यना- ये सारे मार्ग इंसान को उसके वास्तविक सत्य से मुलाकात करवाते हैं, आध्यात्मिक सत्य से। यूँ तो सारे धर्मशास्त्र आत्मा और परमात्मा की बातें करते हैं, इन्सान को जितेन्द्रिय होने की प्रेरणा देते हैं, हमारे द्वारा संचित कर्मों से छुटकारा पाने की बात करते हैं, लेकिन हम अपने कर्म-मल को कैसे धोएँ, अपनी इन्द्रियों के गुणधर्मों से कैसे उपरत हों, हम अपनी काया और काया के उपद्रवों से कैसे मुक्त हों, हमारे जीवन के अस्तित्वगत मूल तत्त्व क्या हैं, उन सत्यों से कैसे वाक़िफ़ हों, इसके लिए ऐसा वैज्ञानिक मार्ग तलाशना होगा जो तर्क के भी अनुरूप हो, हमारी प्रत्यक्ष अनुभूति में भी आ सकता हो- ऐसा मार्ग ‘विपश्यना' का है। यह मार्ग हमें सबसे पहले अपनी साँसों से जोड़ता है। साँसों से जोड़कर हमें हमा: अन्दर व्याप्त चार प्रकार की मुख्य सच्चाइयों से प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक मुलाकात करवाता है। साँस से शुरू हुई यात्रा सबसे पहले हमें हमारी काया से मिलवाती है। दूसरे- हमारी काया के भीतर जो अलग-अलग तरह के उपद्रव उठते हैं- चाहे वे भूख, भोग, वायु, कफ, पित्त के विकार हों या सुख-दुःखमूलक संवेदना या अहसास हों । इनके प्रति साक्षी, ज्ञाता, दृष्टा होने का मार्ग विपश्यना से मिलता है। दूसरी सच्चाई यह है कि हमारे भीतर उठने और विलीन होने वाले सुखदुःख, अनुकूल और प्रतिकूल संवेदन रहते हैं। विपश्यना इनका साक्षी बनाता है। तीसरी सच्चाई है- अन्तरमन, चित्त, चित्त के संस्कार, इनकी धाराएँ, मन के भीतर उठने वाले उद्वेग और संवेग, विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ, स्मृतियाँ, राग-द्वेष के संस्कार - विपश्यना हमें इस तीसरे सत्य से मुलाकात करवाता है, क्योंकि इसी से हम अपने जीवन की समस्त गतिविधियाँ संचालित करते हैं। चौथा सत्य जिससे मुखातिब होते हैं, वह है- हमारे जीवन के मौलिक धर्म, अनुकूल धर्म, प्रतिकूल धर्म, वासनामूलक धर्म, करुणामूलक धर्म । कुछ धर्म तो हमें विरासत में मिलते हैं, कुछ शास्त्रों से मिलते हैं, लेकिन विपश्यना का 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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