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________________ कर ले तो जल की तरह यह भी निर्मल और ग्राह्य हो जाता है।' हममें से हर किसी को यह प्रेरक दृष्टान्त याद रखना चाहिए और धैर्यपूर्वक स्वयं से मुलाकात करनी चाहिए। आओ, हम बुद्ध के सान्निध्य में विपश्यना का आनन्द लेते हैं। कहते हैं – हजारों वर्ष पहले भगवान बुद्ध किसी पूर्णिमा के दिन अपने साधक-साधिकाओं, भिक्षुओं और श्रावकों को एकत्रित किए हुए अशोक-वृक्ष की पावन और शीतल छाया में बैठे हए थे। सरोवर की ठंडी हवाएँ और लहरों की ध्वनि आ रही थी, कहीं-कहीं जुगनू चमक रहे थे, चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी, उस समय भगवान बुद्ध ने विपश्यना के सम्बन्ध में महान उद्बोधन दिया था, जिसमें विपश्यना का सारा मर्म छिपा हुआ था। ___ भगवान बुद्ध ने ‘महासति पट्टान सुत्त' के नाम से जो पावन उपदेश दिया था, उसमें विपश्यना का सारा मार्ग और राज़ छिपा हुआ है। वह उपदेश कुरु नामक प्रदेश में दिया गया। कहा जाता है कि एक समय भगवान कुरु प्रदेश में कर्मास धर्म नाम के कुरुओं के निगम में विहार करते थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और कहा- हे भिक्षुओ ! हे साधको ! तब उन भिक्षुओं और साधकों ने भगवान को प्रत्युत्तर दिया- भदन्त आज्ञा दीजिए। तब भगवान ने कहा- हे भिक्षुओ, हे साधक भाइयो ! ये जो चार स्मति-प्रस्थान हैं. वे सत्वों की शुद्धि, शोक और क्रंदन का विनाश, दुःख और दौर्मनस्य का अवसान, सत्य की प्राप्ति और निर्वाण का साक्षात्कार इन सबके लिए अकेला मार्ग है। जब कोई केवल ज्ञानी अपनी तरंग में कुछ कहना चाहता है तो अपने साधकों को एकत्रित करता है और उन्हें जीवन का संदेश देता है। ऐसा रोजरोज नहीं होता। यह घटना तो कभी-कभी घटती है कि वह अपने पाए हुए सत्य को दूसरे के सामने उद्घाटित कर उन्हें भी सत्य से साक्षात्कार करने का आमंत्रण देता है। वह उस मार्ग को बताता है, जिस पर चलकर इंसान अपने अस्तित्त्व की विशुद्धि प्राप्त करता है, शोक और क्रंदन का विनाश करता है, अन्तरमन में पलने वाले दुःख और दौर्मनस्य का अवसान करता है, अपने वास्तविक सत्य की प्राप्ति करते हुए महापरिनिर्वाण, महामोक्ष को उपलब्ध होता है। बुद्ध कहते हैं चार स्मृति । प्रस्थान हैं - काया की अनुपश्यना, वेदना की अनुपश्यना, चित्त की अनुपश्यना और धर्म की अनुपश्यना । अर्थात् अनुपश्यना के ये चार चरण हैं। ज़रूरी नहीं है कि प्रतिदिन चारों ही तत्त्वों की विपश्यना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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