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________________ है, प्रेम स्वयं साधना है। मेरी अन्तर-साधना ने मेरे भीतर प्रेम के ही फूल खिलाए। मैं प्रेम का निर्झर बना । वीतरागता-वीतमोह होना प्रेम से ऊपर उठने की बात करता है। मुझे लगा - मैं वीतराग-वीतमोह नहीं हो सकता, पर वीतद्वेष होने की साधना कर सकता हूँ। यानी किसी के प्रति, किसी भी परिस्थिति में द्वेष की कटार नहीं चलने देंगे। अगर लगा कि किसी के मन में हमारी वजह से ठेस पहुंच गई है दस बार नहीं, सौ बार भी 'सॉरी' कहना पड़े तो मझे तकलीफ़ नहीं होगी। किसी भी परिस्थिति में वैर-विरोध नहीं पालेंगे। छोटे-छोटे जीवों को भले ही न बचा पाएँ लेकिन अपनी आत्मा को गिरने से तो बचा सकते हैं ! वैर-विरोध न पालने का भाव तो पूरा आस्था के साथ स्वीकार कर सकते हैं। सभी के साथ प्रेम से मिलें। शंका, संदेह, अविश्वास न रखें, अन्यथा आपका विश्वास और भरोसा टूटता जाएगा। श्रद्धा रखें। प्रेम के बदले में प्रेम लौटता है और विद्वेष के बदले में विद्वेष ही लौटता है। हवाएँ अगर सीधी चलेंगी तो फूलों की खुशबू भी सीधी ओर बहेगी। हवा अगर उल्टी चलेगी तो फूलों की खुशबू भी विपरीत दिशा में जाएगी। हमारे पास अगर अहिंसा का, प्रेम का शील होगा तो विपरीत दिशाओं में भी हमारे व्यवहार की सुवास आएगी। चलने वाले राहगीर के हाथ में अगर एक दीपक हो, तब भी अंधकार कम होता है। दीपक बढ़ते गए तो अंधकार दूर, बहूत दूर चला जाएगा। हम पंचशीलों को अपनाकर अपने जीवन को प्रकाशित कर सकें । इसी मंगलभावना के साथ प्रेमपूर्ण नमस्कार ! 34 Jain Education International Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org w
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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