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________________ चूक हो गई है। गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा- 'मुझे अपना उत्तराधिकारी घोषित करना था, मैं देखना चाहता था कि तुम दोनों में से कौन है, जो सिक्खों की गुरु-परम्परा को थामने का सामर्थ्य रखता है । मैं तुम्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करता हूँ ।' शायद यह कहानी चौथे गुरु रामदासजी से सम्बन्धित है । वास्तव में वे धैर्य की कसौटी पर, परीक्षा में खरे उतरे और उत्तराधिकारी बन सके | इसी तरह हम स्वयं को तौलें कि हममें कितना धैर्य है । हम साधना - मार्ग के पथिक हैं, लेकिन हम कितने सहनशील और उदात्त भाव से भरे हैं, यह देखें । साधना-मार्ग के पथिक के लिए धैर्य ही एकमात्र संबल है । जीवन के किसी भी क्षेत्र में धारण किया गया पाँच मिनिट का धैर्य पचास मिनिट की अशांति से बचा लेता है। जब दूसरों को अच्छा व्यवहार देना है तो धैर्य बहुत जरूरी है। एक दिन का जीवन जीने के लिए व्यक्ति को दिनभर में न जाने कितनी तरह की हिंसा करनी पड़ती है । एक समय का भोजन बनाने में भी कई तरह की हिंसा करनी पड़ती है, लेकिन यह मानते हुए कि यह जीवन के लिए आवश्यक हिंसा है, करनी ही पड़ती है, लेकिन जो अनावश्यक है, वह हिंसा क्यों की जाए ? वैसे भी मैं किसी औपचारिकता के लिए हिंसा के त्याग की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं इन्सानियत के लिए मानवता का स्वरूप कुछ बेहतर हो सके, इसलिए हिंसा के त्याग की बात कर रहा हूँ । आप लोग वैर-विरोध, निंदा-आलोचना जैसी हिंसा से भी बचें। कटु वाणी बोलना गलत है, तो निंदा - आलोचना भी नहीं की जानी चाहिए। जीवन में अधिक से अधिक प्रेम, शांति, क्षमा के फूल खिलाएँ । स्वयं को पंचशील की ओर बढ़ाने के लिए साधक भाई - बहनों से अनुरोध करूँगा कि 'अहिंसा' उनका मज़बूत पाया बने । अहिंसा से जियेंगे, अहिंसा ही आपकी छाया हो और अहिंसा ही आपकी आभा । पूरा होश, बोध और विवेक रहे कि वैर-विरोध और द्वेष न हो । महावीर का संदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति वीतराग, वीतमोह और वीतद्वेष बने । हम वीतराग या वीतमोह नहीं बन सकते तो कोई दिक्कत नहीं, कम से कम वीतद्वेष तो अवश्य बनें । मैं अपने बारे में ही बताना चाहूँगा कि जब मैंने साधना मार्ग पर क़दम बढ़ाए तो स्वयं को तौला कि मैं पूरी तरह से वीतरागी जीवन नहीं जी पाऊँगा, क्योंकि मेरे अन्तर्हृदय में प्रेम ज़्यादा है। प्रेम मेरे लिए ईश्वर है, प्रेम ही प्रार्थना 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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