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________________ तब सिकंदर ने मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए नरेश को अपनी ओर से दो लाख स्वर्ण-मुद्राएँ अर्पित कीं और जीवन का पहला पाठ सीखा कि जीवन में सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान मित्रता है। उसने कहा- माना कि वह लूटपाट करके धन चाहता है, विश्व - विजय की कामना करता है, पर इतना कमजोर भी नहीं है, मन का इतना दरिद्र भी नहीं है कि मित्रता के बढ़े हुए हाथ की उपेक्षा कर दे या धन के लालच में हत्या करता रहे। सिकंदर ने कहा- मैं मित्रता ज़रूर करूँगा और एक लाख स्वर्ण मुद्राओं के बदले दो गुना उपहार लौटाऊँगा । यह थी मित्रता की परिणति । हम भी मित्रता के हाथ बढ़ाएँ । आज नहीं तो कल, शत्रु भी मित्रता के लिए तैयार होंगे। हमें याद रखना चाहिए कि अगर हम अच्छा व्यवहार करेंगे तो अच्छा व्यवहार लौटकर आएगा । मित्रता के भाव रखने पर पुनः मित्रता ही मिलेगी । हिंसा के त्याग से ही प्रेम, करुणा, दया भाव, भाईचारे की भावना उदित होगी । अन्यथा साधना भी करते रहोगे और आचरण भी ठीक नहीं करोगे, तो वह साधना कब पनपेगी, जिससे जीसस का वह वचन फलित हो सके कि - 'कोई तुम्हारे एक गाल पर चाँटा मारे तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो।' हिंसा का त्याग करके क्या हम इस तरह की उदारता, करुणा की भावना ला सकेंगे । गाली देने वाले को अगर गीत लौटा सकें तो साधना सफल हुई अन्यथा साधना के नाम पर महज टाइमपास हुआ । कह मैंने पढ़ा है कि सिक्खों में गुरु- वाक्य अंतिम होता है । अगर गुरु ने दिया अर्थात् वह ब्रह्म-वाक्य हो गया। ऐसा हुआ कि एक गुरु ने अपने दो शिष्यों से किसी स्थान पर चबूतरा बनाने के लिए कहा। दोनों ने मिलकर चबूतरा तैयार कर दिया, पर गुरु को पसंद न आया। उन्होंने तोड़कर पुनः बनाया, लेकिन तब भी गुरु को पसंद न आया। इस तरह नौ-दस बार हुआ, तब एक शिष्य ने कहा भगवन् ! आप ठीक-ठीक बता दीजिए कि चबूतरा कैसा बनाना है। तब गुरु ने उन्हें बताया कि ऐसा - ऐसा, अमुक प्रकार का चबूतरा बनाया जाए। उनके कहे अनुसार दोनों शिष्यों ने फिर चबूतरा बनाया, लेकिन गुरु तब भी संतुष्ट न हुए। इस बार तो एक शिष्य से रहा नहीं गया । उसने कहालगता है आप बूढ़े हो गए हैं, जो बिल्कुल आपके कहे अनुसार चबूतरा बनाने पर भी आप ठीक से देख नहीं पा रहे हैं। गुरु मुस्कुराए । तभी दूसरे शिष्य ने कहा- भगवन् ! आपने तो अच्छी तरह समझाया था, लगता है हमसे ही कहीं 32 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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