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सीखना होता है, बार-बार चिंतन-मनन करना होता है, अपनी प्रज्ञा को वस्तु, व्यक्ति और विचार के प्रति जागरूक और सचेतन करना पड़ता है, तब कहीं हमारा ज्ञान पकता है, परिपक्व होता है। ध्यान पकने और पकाने की चीज़ है। काया, मन और इन्द्रियाँ तपने और तपाने की चीजें हैं।
तन-मन की आन्तरिक स्थिति विकारों, उपद्रवों और भोगजनित संस्कारों तथा कषायों से घिरी हुई है। छोटे-छोटे निमित्त हमें क्रोधित कर देते हैं, चिंतित
और विकृत कर देते हैं। कहने के नाम पर अपन सब शांत और निर्मल दिखाई देते हैं, पर यह सब तभी तक है, जब तक निमित्त न आए । गुस्सा मानो नाक पर ही चढ़ा बैठा है। किसी की छोटी-सी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर पाते । लाखों का घाटा लग जाने पर उसे क्या बर्दाश्त करेंगे, घर से बाहर गया बेटा अगर एक घंटा लेट आए, तो हम बेचैन हो जाते हैं, आर्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान करने लग जाते हैं, हमारी शांति तो गिरवी रखी हुई है। 'विपश्यना' एक दिव्य साधना है- तन को साधने की साधना, मन को साधने की साधना । स्वयं के सत्य से साक्षात्कार करने की साधना। विपश्यना यानी देखना - स्वयं को देखना. स्वयं की साँसों को देखना, शरीर, शरीर के अंग, शरीर की संवेदनाओं को देखना, शरीर की परिवर्तनशीलता और नश्वरता को देखना, अन्तरमन की स्थिति, प्रकृति और विकृतियों को देखना। सबको आतापी बनकर, स्मृतिमान बनकर, सचेतन होकर, प्रज्ञापूर्वक, बोधपूर्वक देखना। स्वयं के सत्य से साक्षात्कार करने का यही तरीका है - पहले स्थूल, फिर सूक्ष्म । पहले भीतर की अशांतियों को देखना, भीतर की उथल-पुथल को शांत करना और फिर स्वयं की शांति में प्रवेश करना।
जब हम विपश्यना को समझ रहे हैं, तो अपने-आप को तमाम आरोपणों से मुक्त कर लें। अतीत के समस्त संस्कारों से स्वयं को मुक्त कर लें। पंथ, परम्परा, सम्प्रदाय, गुरु उन सबसे अपने-आपको मुक्त कर लें, केवल एक ही बोध रहे कि अब मैं खुद को जानने के लिए तत्पर हो रहा हूँ। मैं जैसा भी हूँ, जो भी हूँ, बस स्वयं को जानना है। हमारी आदत स्वयं को अच्छा प्रस्तुत करने की होती है। भीतर से भले ही वह खोटा हो, लेकिन खरे के रूप में पेश करना चाहते हैं। बाहर का फोटो खिंचवाओगे तो कलर्ड आएगा, पर भीतर का एक्स-रे कराओगे तो ब्लैक एण्ड व्हाइट आएगा । हम जो भीतर से ब्लैक एण्ड व्हाइट हैं, विपश्यना और अनुपश्यना द्वारा उसे जानना है।
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