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________________ स्वयं के परम सत्य से साक्षात्कार करवाता है । इस मार्ग में किसी प्रकार का आरोपण नहीं है, बल्कि अपनी ही प्रकृति से गहराईपूर्वक मुलाकात करने का तरीका है। सम्भव है विभिन्न साधना पद्धतियों में ईश्वर, स्वर्ग-नर्क, आत्मा जैसी चीज़ों का बार-बार उल्लेख होता हो लेकिन विपश्यना ऐसा मार्ग है, जिसमें किसी प्रकार का आरोपण नहीं है । कहीं कोई अतिरिक्त चीज़ समाविष्ट नहीं है । विपश्यना अर्थात् खुद से खुद की प्रकृति की मुलाक़ात । अपने में जो है, उससे मुलाक़ात करो, जो है उसका साक्षी होना, जो है उसका मात्र ज्ञान कर लेना, जो है उसका मात्र दर्शन कर लेना, जो है उसका ही तपस्वी होना, जो है उसके प्रति प्रज्ञाशील होना, जो है उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करना ही विपश्यना है । प्रज्ञाशील होने का अर्थ है जो हमें अनुभूति में आ रहा है, उसके प्रति पूर्ण जागरूक और सचेतन होना । जगत में ढेरों साधना पद्धतियाँ हैं । कुण्डलिनी और षट्-चक्र जागरण के नाम से एक गहरी साधना पद्धति भारत ने दुनिया को दी है, लेकिन कुण्डलिनी और षट्-चक्र व्यक्ति को प्रत्यक्ष अनुभूति में नहीं आते वरन् साधना की गहराई में जाते-जाते कभी किसी का इनसे सम्पर्क जुड़ता होगा, इनकी ऊर्जा उपलब्ध होती होगी। मैं मानता हूँ कि अदृश्य पर जाने से पहले व्यक्ति को दृश्य पर ग़ौर करना चाहिए। मंदिर में प्रभु - मूर्ति देखने से पहले मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में भी प्रभु को देखने का नजरिया प्राप्त कर लेना चाहिए । जब तक कोई अपनी माँ, पत्नी, भाई, बहन, पिता से प्रेम नहीं कर पाया तो हम कैसे जानें कि वह पड़ोसी से मोहब्बत कर पाएगा। जब घर के लोगों को ही प्यार न कर सके तो दूसरों को क्या प्यार करोगे । जो तुम्हें दिखाई देता है, उसका ही साक्षात्कार न कर पाए, ठीक ढंग से उसकी अनुभूति न कर पाए, उसका सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन न कर पाए तो उस अदृश्य का जो सिद्ध-बुद्ध - मुक्त है, दर्शन कैसे कर पाएँगे, कैसे साक्षात्कार कर पाएँगे ? सम्भव है आप वर्षों से प्रभु की भक्ति कर रहे होंगे, लेकिन क्या बता सकते हैं कि प्रभुजी कितनी बार मिले ? क्या प्राप्त किया ? अपने सत्य को कितना समझा ? जो अदृश्य है उसके प्रति तो हम आस्थावान हो गए लेकिन जो दृश्य है - हमारी काया - इसे हमने कितना समझा ? इसके विकारों को समझने के लिए कितना समय दिया ? अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only 15 www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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