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________________ और इन्द्रियों को तपाने, सँवारने, सुधारने, अपने अंकुश में लाने का प्रयत्न करते हैं। इस क्रिया में दैहिक तप अपने-आप फलीभूत हो जाता है। हमारा अन्तरमन किसी कोयले की तरह है। कोयला न पानी से धुलता है, न साबुन से। कोयले को उज्ज्वल करना है तो कोयले को जलाना होगा। कोयला जलकर ही सफेद होता है। दैहिक तप कोयले को जलाने की तरह है। वास्तव में तो हमें मन को निर्मल और उज्ज्वल बनाना होता है। मन को शांत मनस्' और आनन्दपूर्ण दशा में ले जाना होगा। रूप. रस. गंध, स्पर्श के बहाने हमारी इन्द्रियाँ बार-बार बाह्य सुख साधनों के प्रति आकर्षित होती हैं, बन्दर की तरह मचलती हैं, साँप के फन की तरह फैलती रहती हैं। इन अविजित इन्द्रियों और मन को जीतने में. इन्हें धोने और धुनने में जिसने अथक प्रयत्न किया, उस पुरुषार्थ का नाम ही वास्तव में महावीर है। हमारा मन कर्मबीजों का निर्माण करता रहता है। ऐसा नहीं है कि हमने केवल अतीत में कर्मों के बीज बोए हैं और न ही केवल क्रियाओं के द्वारा कर्मबीज बोते हैं. अपित मन के विकारों, अहंकारों, वासनाओं और मन के अज्ञान द्वारा कर्म के बीज अधिक बोए जाते हैं। मन की सोच, विकल्प, चित्त के संस्कारों द्वारा हम कर्म के बीज अधिक बोते रहते हैं। किसी गाँठ को बाँधने में एक पल लगता है, लेकिन उसे खोलने में लम्बा अर्सा गुज़र जाता है । घाव करने में क्षणभर लगता है, पर घाव भरने में लम्बा समय व्यतीत हो जाता है। मन के ये कर्मबीज कभी हम राग और कभी द्वेष के रूप में, कभी दुःख, दौर्मनस्य और कभी रोग, शोक, चिन्ता, क्रोध के रूप में बोया करते हैं। इन बीजों को धोना और धुनना ही आध्यात्मिक तपस्या है। महापुरुषों ने, बुद्ध और महावीर ने भी स्वयं को तपस्वी बनाया, स्वयं को भीतर ही भीतर तपाया। पहले उन्होंने खुद को तन से भी तपाया। लेकिन जैसे-जैसे तन को तपाया उन्हें समझ आती गई कि तन को तपाने की ज़रूरत नहीं है, मन के भीतर समाए सूक्ष्म मन की जड़ों को तपाने और काटने की ज़रूरत है। इस समझ के आते ही उन्होंने काया को तपाना कम कर दिया और माना कि तपस्या के लिए काया प्रवेश-द्वार की तरह है। शेष तो अपने मन, चित्त और आत्मा को तपाना ही सच्ची तपस्या है। आज से हम एक विशिष्ट मार्ग की ओर अपने क़दम बढ़ा रहे हैं । यह मार्ग है विपश्यना का । यह होश और बोधपूर्वक जीने का मार्ग है। यह वह पवित्र मार्ग है, जो व्यक्ति को स्वयं से, | 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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