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________________ साक्षी-भाव के, दृष्टा-भाव के गहन होने से काया के प्रभाव अपने-आप शांत, विलीन होते जाते हैं और साक्षी दृष्टा काया के प्रभावों से मुक्त हो जाता है। काया के, चित्त के गुणधर्मों से मुक्त होना सहज नहीं है। क्या क्रोध करके आज तक कोई क्रोध से मुक्त हो पाया है, भोग करके क्या कोई भोगों से मुक्त हो पाया है ? क्रोध करने से व्यक्ति मरकर चण्डकौशिक बनता है और भोगों से गुजरकर व्यक्ति ययाति बन जाता है लेकिन तब भी मुक्त नहीं हो पाता। जब व्यक्ति साक्षी-भाव को, दृष्टा-भाव को साधने लगता है तब वह धीरे-धीरे काया और चित्त के गुणधर्मों को धीरे-धीरे बारीकी से समझने लगता है। तब उसका एक ही भाव, एक ही लक्ष्य, एक ही धारणा होती है कि मैं केवल साक्षी हँ, अपने दृष्टा-भाव को साध रहा हूँ और जान रहा है कि जो उदय में आ रहा है वह काया का धर्म है, चित्त का धर्म है। वह मेरा धर्म नहीं, वह मैं नहीं हूँ। अनासक्ति चर्चाओं में नहीं सधती, प्रवचनों से, शास्त्रों को पढ़ने से नहीं सधती। अनासक्ति के फूल तब खिलते हैं जब साधक स्वयं की वस्तुस्थितियों से वाकिफ़ होता है और स्वयं को जानने लगता है। मेरा मोह किनसे और कहाँ है, कहाँ उलझा हूँ, किन चीजों से मुक्त हूँ, मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ, मैं कहाँ जाऊँगा, मैं जिनसे बँधा हूँ उनके बंधन क्या मेरे लिए उचित हैं, कौन-से बंधन मुझे रखने हैं और किन बंधनों का मुझे त्याग करना है। साधक ही इन चीज़ों का निर्णय कर सकता है। हर व्यक्ति रोज अपने नए संबंध बना रहा है। जो साधक हैं और साधना मार्ग पर चल रहे हैं उन्हें सोचना होगा कि वे किन संबंधों को बनाए रखें और किन संबंधों को त्यागें। संबंध भी एक परिग्रह है। अगर महावीर कहते हैं कि अपरिग्रह का अंकुश हर व्यक्ति के जीवन में होना चाहिए तो हमें याद रहे कि परिचय भी एक परिग्रह है। जैसे अधिक सामान का, वस्तुओं का, धन, ज़मीन, ज़ायदाद का परिग्रह व्यक्ति की आत्मा के लिए बोझ है वैसे ही अति परिचय भी परिग्रह है, बोझ है, थकाने वाला है। इसलिए व्यक्ति किसी व्यक्ति के साथ मैत्री न साधे, किसी वस्तु के साथ मैत्री न साधे, वह विश्व-मैत्री साधे । पेरा प्रेम सबके लिए है जो सामने आ गया वे सभी मेरे प्रेम के पात्र हैं। व्यक्ति से किया गया प्रेम राग हो जाता है, मोह बन जाता है। इसलिए साधक जो चित्त के राग-द्वेष से मुक्त होना चाहता है वह व्यक्ति के राग से ऊपर उठकर विश्व-मैत्री को अपने जीवन का धर्म बनाए। विश्व-प्रेम यानी सबसे प्रेम, सबकी सेवा। ऐसा नहीं कि केवल 146 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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