SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माता-पिता की सेवा, पति या पत्नी, बच्चों की सेवा बल्कि जिसे भी आवश्यकता है सबकी सेवा। नंदीषेण मुनि की तरह वह सबकी सेवा करेगा। मदर टेरेसा की तरह वह सबके कल्याण की प्रार्थना करेगा। अगर हम टेरेसा को माँ कहते हैं तो वह किसी व्यक्ति विशेष की माँ तो नहीं। वह तो हजारों-लाखों लोगों की माँ बन गई। उन्होंने विश्व-मैत्री को साध लिया। सबके लिए सुख शांति की प्रार्थना है, सबके कल्याण की प्रार्थना है। ‘सबसे प्रेम, सबकी सेवा' अच्छा सिद्धांत है। मोह, विकार, द्वेषदौर्मनस्य से ऊपर उठने के लिए यह एक दिव्य सिद्धांत है। हम अपने अन्तरमन की स्थिति समझें। हमारी बुद्धि, अहंभाव, 'मैं' और 'मेरे' का ममत्व सभी इसी चित्त से जुड़े हैं। मस्तिष्क काया का विशेष हिस्सा है, चित्त भी इसी का एक हिस्सा है, एक इलेक्ट्रीसिटी है। बुद्धि भी इसी का हिस्सा है, मन, विचार, क्रोध, भोग के भाव, उद्वेलन और शांति सभी इसमें साकार होते हैं। ध्यान करते हुए जब स्वयं को सुझाव देते हैं कि मैं अपने चित्त को शांत कर रहा हूँ, ....शांत कर रहा हूँ, रिलैक्स कर रहा हूँ तब हम केवल काया को ही रिलैक्स नहीं करते, काया के साथ-साथ हमारे चित्त का, बुद्धि का, मन का भी रिलैक्सेशन होता है। वे भी आराममय हो रहे हैं, वे भी तनावमुक्त हो रहे हैं। काया और चित्त या काया और मन अलग-अलग नहीं हैं। जैसे शरीर के अन्य अंग हैं वैसे ही मस्तिष्क भी काया का एक अंग है। हम सभी अपने चित्त/मन को देखें और इसमें भरी हुई विचारधाराओं से खिन्न न हों, वरन् स्वयं को समझें और धैर्यपूर्वक इसे जानने की कोशिश करें। साधक को केवल धैर्य रखना होगा तभी चित्त की अनुपश्यना की जा सकेगी, तभी काया को भीतर ही भीतर समझ सकेंगे। अधीर होने से काम न चलेगा। धैर्य, सहनशीलता ज़रूरी है। हमारी जितनी क्षमता है उससे कहीं अधिक धैर्य की आवश्यकता है। चित्त क्या है ? बुद्ध कहते हैं- चित्त क्षणिक है, इसका दमन ही सुखदायक है। चित्त क्यों क्षणिक है ? क्योंकि यह कभी स्थिर नहीं रहता। क्षण में यहाँ और क्षण में वहाँ हो जाता है, पता भी नहीं चलता कब यह गुलांचे लगाने लगता है। यह ध्यान में बैठा-बैठा न जाने कहाँ-कहाँ चला जाता है। लोग कहते हैं कि काया क्षणभंगुर है। फिर भी चालीस-पचास साल तो टिक ही जाती है पर मन क्षण-क्षण में बदलता रहता है। इसलिए चित्त सर्वाधिक नाशवान है। इसलिए कभी इसके अनुयायी न बनें । कभी भी चित्त के प्रवाह में न बहते रहें। 147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy