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________________ अंकुश लगाता रहता है, ताकि शिष्य मर्यादा में रहे, नियंत्रण में रहे। जरा सोचें कि जो व्यक्ति बाहर में ही नियंत्रण में नहीं रह सकता वह चित्त को अपने नियंत्रण में कैसे रख पाएगा ! जब हम अपने वचन, विचार और व्यवहार को ही अपने नियंत्रण में नहीं रख सकते तब साधना-मार्ग का क्या अर्थ ? कभी राजुल ने रथनेमि से कहा था- हे रथनेमि, अगर हम लोग रहट की तरह (कुएँ पर रहट जिस पर रस्सी चलती है) यूँ ही अस्थिर बने रहेंगे तो साधना-मार्ग पर कैसे स्थिर हो पाएँगे। अभी कुछ खाने को चाहिए, कि अभी कहीं जाने को चाहिए, अभी कुछ भोगने को चाहिए, अभी कुछ और प्राप्त करने को चाहिए, इसी तरह और-और की चाहत में मन को भटकाते रहेंगे, चित्त को इधर-उधर डोलाते रहेंगे तो अपने चित्त को कैसे साधेगे ? इस पर कैसे विजय प्राप्त करेंगे ? औरों पर विजय प्राप्त करना आसान होता है पर स्वयं पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। हज़ारों-हज़ार योद्धाओं पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा एक अपने पर विजय प्राप्त करना अधिक श्रेष्ठ है। जो निर्वाण का साक्षात्कार करना चाहता है, सत्य से साक्षात्कार करना चाहता है, जो अपने चित्त में चलने वाली राग-द्वेष की प्रतिक्रियाओं से मुक्त होना चाहता है, ऐसे हर साधक स्वयं के प्रति अपनी जागरूकता को साधे, स्वयं के प्रति स्वयं को सचेतन करे। फिर चाहे वह काया के अंग-प्रत्यंग पर या काया की वेदना-संवेदनाओं पर या काया के षट्चक्रों पर स्वयं को सचेतन और केन्द्रित करे । चाहे जिस रूप में करे, पर काया में उतरकर वह स्वयं से ही साक्षात्कार कर रहा है। काया के बाद उसके सामने सबसे बड़ा तत्त्व 'चित्त' आ खड़ा होगा । क्योंकि वह जो भी करता है चित्त से प्रेरित होकर ही करता है। जीवन के समाधान भी चित्त से ही प्रेरित होते हैं। व्यक्ति स्वयं ही समस्या है और समाधान भी है। अनुपश्यी साधक अपने चित्त की स्थितियों को पहचानने लगता है कि यह शांत है अथवा अशांत, विक्षिप्त है या संक्षिप्त, मोह में फँसा है या निर्मोही है, समस्याओं के मकड़जाल में उलझा है या सहज सौम्य शांत समाधान में है। वह जानने लगता है कि उसका चित्त बंधनों से घिरा है या मुक्त है, उद्वेलनों से भरा है या शांत है, सरोवर की भाँति है या सागर जैसी उत्ताल तरंगों से तरंगित है। जो साधक भलीभाँति अपने चित्त की स्थिति जानता है वह न तो कुछ ग्रहण करता है और न ही किसी को त्याग करने योग्य समझता है, जो कुछ होता है उसका साक्षी, दृष्टा होता है। 145 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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