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काया की अनुपश्यना करने वाला व्यक्ति चित्त की अनुपश्यना करने में भी सफल होता है । जो श्वास पर सचेतन नहीं हो पाता वह काया पर कैसे जग पाएगा। जो काया में नहीं जग सकता, वह इसमें होने वाली वेदना-संवेदनाओं पर कैसे जग सकेगा, उन्हें वह कैसे पहचान सकेगा, कैसे पकड़ सकेगा। जो स्थूल पर ही सचेतन नहीं हो सकता वह अपने अन्तरमन का साक्षात्कार कैसे कर पाएगा ? क्योंकि हमारे चित्त के विचित्र धर्म हैं। काया तो काली या गोरी जैसी भी है जीवन भर वैसी ही दिखाई देगी, लेकिन हमारा चित्त, हमारा मन ?
मन लोभी मन लालची मन चंचल चितचोर ।
मन के मत चलिए नहीं, पलक-पलक मन और।। हम इस मन के अनुसार न चलें । यह तो पल-पल में बदलता रहता है। यह चित्त बहुत विचित्र है। कहते हैं श्री भगवान पूर्णिमा के दिन टहलने के लिए निकले। उनके साथ मेघ नामक शिष्य भी चला । बौद्ध शास्त्रों में उसे मेघीय के नाम से जाना जाता है। साथ में टहल ही रहे थे कि मेघीय ने कहा- मेरी इच्छा कहीं और टहलने की है, इसलिए मैं जाता है। भगवान ने कहा- तुम्हारी जाने की इच्छा है, तुम चले जाना, लेकिन अभी मैं अकेला हूँ, जब कोई अन्य भिक्षु आ जाए तब तुम चले जाना।
नहीं प्रभु, मैं तो अभी जाऊँगा- मेघीय ने कहा।
भगवान के मना करने के बावजूद अगर वह जाना जाहे तो जाए। भगवान ने पुनः कहा कि उचित यही है कि कोई दूसरा भिक्षु आ जाए तब तुम चले जाना।
पर उसने नहीं सुनी और वह चला गया। साँझ के समय जब लौटकर आया तो कहने लगा- आज मेरा चित्त नहीं लगा। जब मैं यहाँ था तब भी नहीं लग रहा था और जहाँ चला गया वहाँ भी मेरा चित्त नहीं लगा। तब भगवान ने भिक्षुओं से कहा- इच्छाचारी नहीं होना चाहिए । साधकों ! चित्त चंचल है, चित्त क्षणिक है, इसका दमन ही सुखदायक है। इसका भोग कभी भी सुखदायक नहीं होता । इसलिए तुम अपने चित्त पर विजय प्राप्त करो और इच्छाधारी बनने की बजाय अनुशासनचारी बनने का प्रयत्न करो।।
जो व्यक्ति अपने मन के अनुसार ही चलता-फिरता रहता है, वह कहीं भी नहीं पहुँच सकता । इसीलिए जीवन में गुरु की आवश्यकता है। चित्त के दमन के लिए, चित्त के शमन, अनुशासन, चित्त पर विजय प्राप्त करने के लिए गुरु सहायक है। गुरु व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं बनने देता। समय-समय पर वह 144
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