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अन्तर्द्वन्द्व से
मुक्ति
स्वयं से साक्षात्कार करते हुए जैसे-जैसे हम भीतर की अनुपश्यना करते हैं वैसे-वैसे अपनी इस काया की सच्चाइयों से वाक़िफ़ होते जाते हैं। साधना का मजेदार कार्य व्यक्ति को अपनी इस साढ़े तीन हाथ की काया में ही करना होता है। मंदिर, मस्जिद, गंगास्नान या तीर्थयात्रा के लिए जाना हो तो हमें कहीं बाहर जाना होता है, कुछ करना होता है। लेकिन अनुपश्यना वह साधना है जिसके लिए हमें कहीं जाना नहीं, कुछ करना नहीं है। वरन् हम जो जैसे हैं, जहाँ हैं वहीं पर स्वयं से मुखातिब होना होता है। जैसे हम आइना देखते हैं तो स्वयं को ही देखते हैं, खुद से ही मुख़ातिब होते हैं वैसे ही अनुपश्यना करने वाला साधक अपने आप से रूबरू होता है। बस सहज अवस्था में अपनी कमर और रीढ़ को सीधी रखकर बैठता है, अपनी स्मृति को अपनी नासिका प्रदेश पर केन्द्रित करता है और अपने श्वासोश्वास पर ध्यान करते हुए अपनी काया और जीवन के प्रति जागरूक होता है, सचेतन और प्रज्ञाशील होता है। अपनी बुद्धि, मेधा, प्रतिभा और जागरूकता को अपने साथ लगाता है। 140
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