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________________ जब श्री भगवान काया की बात करते हैं तो मानकर चलें कि यह काया ही हमारा जगत है, जीवन का आधार है। हमारे सारे अध्यात्म का रहस्य इस काया रूपी लोक में ही व्याप्त है। इस काया के अलावा हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। माना कि काया अनित्य है, अस्थिर है, नाशवान है पर इस नाशवान के भीतर ही तो अविनाशी रहता है, अनित्य के भीतर ही नित्य रहता है । तब जीवन क्या हैयह शरीर और आत्मा का खेल है, नश्वर के भीतर विराजित अनश्वर का खेल है। जैसे घड़ी होती है। घड़ी एक तत्त्व है और घड़ी के भीतर प्रतिपल जो धड़कन चल रही है, गति हो रही है, जो परिवर्तन हो रहा है, जो सक्रियता दिखाई दे रही है, फिर भी हर पल वक्त आगे से आगे बढ़ता जा रहा है। ऐसा ही हम सभी के जीवन में हो रहा है। साँस चल रही है, दिल की धड़कन चल रही है। इसी तरीके से समय भी आगे जा रहा है। शरीर और आत्मा दो भिन्न और दो अभिन्न तत्त्व हैं। जैसे घड़ी और इसमें चलने वाली व्यवस्था दो भिन्न तत्त्व भी हैं और अभिन्न तत्त्व भी हैं। हम उन्हें अलग कर नहीं सकते। साधक अपनी भेद-विज्ञान की दृष्टि से कि शरीर अलग और आत्मा अलग, जान सकता है, समझ सकता है। ____ हमने अभी तक अनुपश्यना के सिद्धांत को समझते हुए, अनुपश्यना की साधना को समझते हुए श्वास पर ध्यान किया है, इस पर स्मृतिमान और जागरूक होने का अभ्यास किया है। कायानुपश्यना के द्वारा हमने काया के विभिन्न गुणधर्मों पर सचेतन बनने का अभ्यास और प्रयास किया है। साथ ही काया में होने वाली विशिष्ट वेदना और संवेदनाओं पर, उसके ख़ास-ख़ास अहसासों पर स्वयं को जागरूक करने का अभ्यास किया है। वेदना और संवेदना के आधार पर ही हम काया की और काया के अंगों की अनुभूति करते हैं। ये सब अभिन्न, एक-दूसरे से जुड़े हुए तत्त्व हैं। वेदना अर्थात् काया की जो फीलिंग्स हैं उनकी ठोस अनुभूति करते हैं। काया की अनुपश्यना करते हुए जब हम काया को समझते हैं, उसकी बारीकियों को समझकर ही काया में उठने वाली वेदना, इसकी जीवनी-शक्ति, काया की ऊर्जा, संवेदना, अनुकूलप्रतिकूल गुणधर्मों के आधार पर ही हम काया को जानते हैं। जब हम यह सब कर रहे होते हैं तब एक और तत्त्व होता है जो इनकी अनुभूति करता है, इनके साथ लगा रहता है, इनका सहयोगी होता है वह है हमारा चित्त, हमारा मन । पहले पहल सीधे-सीधे रूप में कोई भी व्यक्ति अपने चित्त से मुखातिब नहीं हो 141 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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