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________________ कहते हैं काया छोड़कर वह ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न देवता बन गया। देवता बनकर वह श्री भगवान की सभा में उपस्थित हुआ और वह कृपण भी; चूँकि उसका बेटा मर गया था अतः वह अपने मन की अवस्थाओं को ठीक करने के लिए, भगवान के पास पहुँचा। वहाँ उस ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न व्यक्ति को देखकर उसने पूछा कि यह कौन है। पता चला कि उसका ही पुत्र था। 'मेरा बेटा, अरे उसने तो कभी सौ सोनैयों का भी दान नहीं किया, मैंने कभी उसे एक पैसा भी दान देने के लिए नहीं दिया, वह मरकर इतना महान देवता कैसे बन गया। भगवान ने कहा- मरने से पहले इसके चित्त की जो प्रसन्न अवस्था थी, सद्गुरु को देखकर उसके मन जो उत्कृष्ट भावदशा बनी थी वही इसके इतने ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न देवता बनने में सहायक हुई। साधक समझें कि अगर हम प्रसन्नचित्त रहेंगे तो सुख और दिव्यता हमारा छाया की भाँति अनुसरण करेंगे। हम मन को परिष्कृत करें। इसके लिए चित्तानुपश्यना परम सहायक है। आप सभी अपने-अपने चित्त को भलीभाँति समझें और इसे परिष्कृत, निर्मल, संस्कारित और शुद्ध करने के लिए प्रयत्नशील हो सकें, इसी शुभ भावना के साथ नमस्कार ! 139 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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