SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर रहे हैं। हम लोग कोई बौद्ध नहीं हैं, जो इस शास्त्र का चिंतन- -मनन कर रहे हैं। बल्कि गुणानुरागी बनकर शास्त्र में से कुछ ढूँढ निकालने की कोशिश कर रहे हैं। जिसमें सत्य तक पहुँचने का रास्ता छिपा है, उसमें से दस प्रतिशत भी अगर हम आत्मसात कर सकते हैं तो वह किसी भी पंथ या परम्परा का क्यों न हो, हम उसे धारण करेंगे, उसका अनुशीलन करेंगे। हाँ, हम किसी का अंधसमर्थन भी नहीं करेंगे। खुद जानेंगे, खुद समझेंगे और ठोस अनुभूति करेंगे । अनुभूति के आधार पर जो आएगा स्वीकार है, जो नहीं आएगा उसे इंकार भी कर देंगे। सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय, संभव है महासति पट्ठान सुत्त में भी कोई थोथा हो और हो सकता है इसमें बहुत बड़ा सत्य छिपा हुआ हो । कई बार लकड़ी केवल लकड़ी लगती है लेकिन घर्षण करने पर उसमें से भी आग सुलग जाती है । काला कोयला भी हमें रोशनी दे देता है, अग्नि दे देता है, भोजन पका देता है । सकारात्मक देखें। अगर हमारा मन नकारात्मक है तो जीवन के सारे परिणाम नकारात्मक होंगे। और मन के सकारात्मक होने पर जीवन के सारे परिणाम सकारात्मक आएँगे । चित्त में प्रसन्नता बनाए रखें। दूसरों के निमित्तों के आधार पर अपने चित्त को प्रभावित न होने दें। जो हो रहा है उसे होने दें, उसे लेकर अपने चित्त को मायूस न करें। क्योंकि चित्त के मायूस होते ही जीवन की अन्य गतिविधियाँ भी उससे प्रभावित होने लगती हैं। एक बार ऐसा हुआ 1 एक महा कंजूस व्यक्ति का बेटा बीमार हो गया । पिता इतना कंजूस कि उसने अपने बेटे पर खर्चा नहीं किया। बेटा और अधिक बीमार होता गया, मरणासन्न हो गया। लोगों ने कह दिया कि अब यह मरने वाला है, इसे पलंग से नीचे उतार दो । कंजूस ने सोचा कि मर गया तो घर के बर्तन, बिस्तर सब धोने पड़ेंगे तो घर के बाहर ले आया, चौकी पर लिटा दिया। वह तड़प रहा था । इतने में ही उसने देखा कि श्री भगवान आहारचर्या के लिए उधर से जा रहे हैं । उनके शांत तेजस्वी मुखमंडल को देखकर वह प्रभावित हुआ, आँखें मिलीं, मन में प्रसन्नता छा गई। वह सोचने लगा, 'मैं मरने वाला हूँ लेकिन प्रभु तेरी कितनी कृपा हो गई कि मरने से पहले तुमने मुझे एक महान सत्गुरु के दर्शन करवा दिए ।' चित्त में प्रसन्नता छा गई। उसके मन की भाव-दशाएँ अत्यन्त निर्मल हो गईं और इसी भाव - दशा के साथ उसने अपनी काया छोड़ दी । 138 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy