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________________ खयाल रहे, जब तक जीवन में चेतन का संयोग है तब तक कोई भी चीज़ जड़ नहीं है। चेतना से अलग हो जाने पर उसे हम जड़ कह सकते हैं। कोई परम्परा इसे जड़ मानती है और कोई परम्परा इसे जड़ नहीं मानती, निर्जीव नहीं मानती। यह अलग-अलग परम्पराओं का खेल है। मैं कहना चाहूँगा कि जब हम अनुपश्यना और सत्य की ठोस अनुभूति के धरातल पर आ गए हैं तो सारी परम्पराओं को हटा दें। कौन क्या कहता है इसे भूल जाओ और खुद समझो, खुद जानो। अगर मैं अभी बोल रहा हूँ तो वही बोलने का प्रयत्न कर रहा हूँ जो अपने भीतर जान रहा हूँ। जो मैं कह रहा हूँ उसे भी आप अपनी अनुभूति के धरातल पर देखें । आप जो कर रहे हैं उसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती हैमन से या किसी किताब से ? कहाँ से मिलती है ? खुद की अनुभूति से जानो और मानो, नहीं तो परे हटा दो । सत्य के मार्ग पर आरोपित सत्य का अनुकरण नहीं होता। सत्य को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि तुम किस मान्यता के हो, सत्य को केवल सत्य से सरोकार है। शास्त्र तो कहते हैं- कर्ता-धर्ता भोक्ता सब आत्मा है। अभी तो हम आत्मा को ला ही नहीं रहे। अभी तो आत्मा का अता-पता ही नहीं है। अभी तो मन के धरातल को समझ रहे हैं और मन की प्रकृतियों को जान रहे हैं। इसलिए मन पर, चित्त पर बोल रहा हूँ। हम इसकी अनुपश्यना कर सकते हैं। आत्मा की अनुपश्यना कैसे करोगे ? जिसकी अनुभूति ही नहीं है उसकी अनुपश्यना कैसे होगी ! आत्मा अर्थात् हमारे भीतर जो चैतन्य तत्त्व है वह प्रकट होगा तब पता चलेगा, यह दृष्टा-भाव वास्तविक तौर पर चैतन्य भाव है। आप लोग मन को गौण न करें। मन का शुद्ध होना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि हमारा पहला सत्य मन में ही छिपा होता है, सारी प्रेरणाएँ इसी में छिपी रहती हैं। इसीलिए मन का ठीक होना ज़रूरी है। नियम, व्रत, प्रतिज्ञाएँ कितनी भी ले ली जाएँ, लेकिन मन राजी न हो तो ? मन की खोट ही प्रतिज्ञा लेने को प्रेरित करती है वरना प्रतिज्ञा की क्या ज़रूरत है ? तपस्या करने वालों से उनके मन की स्थिति पूछो- क्या उनका क्रोध चला गया ? मन की खोट जब तक दूर नहीं होगी, तब तक केवल तन को तपाना ही हुआ। तन धोया मन रहा अछूता- इस मन को समझने के लिए ही चित्तानुपश्यना कर रहे हैं। ‘महासति पट्ठान सुत्त' के ज़रिए हम किसी बौद्ध शास्त्र का पारायण नहीं 137 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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