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________________ कि वह वेदना जो हमें प्रभावित कर रही थी विलीन हो चुकी है। हो सकता है अंदर में पड़ी हुई हो, फिर भी बनी रहे तब भी उस समय उसके प्रभाव विलीन हो चुके होते हैं और उसमें से आनन्द दशा, सुखद दशा का उदय होने लगता है । उस समय हम देखते हैं अब सुखद वेदनाओं का अहसास हो रहा है। धीरे-धीरे देखते हैं अब न सुखद है न दुःखद है, केवल मौन साक्षी है, मौन तटस्थ है, मौन ज्ञाता दृष्टा है। तब केवल दर्शन और केवल ज्ञान रह जाता है । यहाँ पर केवल दर्शन और केवल ज्ञान वाला वह सिद्धांत बीच में न लाएँ जिसका मतलब है सर्वज्ञ हो जाना। भूत, वर्तमान, भविष्य को जानने वाला, सृष्टि के प्रत्येक रहस्य को जानने वाला हो गया, ऐसा नहीं है केवल दर्शन अर्थात् अब स्वयं का केवल दर्शन मात्र रह गया है, केवल ज्ञान अर्थात् अब केवल ज्ञान हो रहा है, प्रतीति हो रही है न सुखद की न दुःखद की। जो है असुखद-अदुःखद उसका ज्ञान हो रहा है। महावीर की परम्परा में तो केवल दर्शन और केवल ज्ञान को बहुत उच्च श्रेणी में ले जाया गया है। लेकिन जब हम इसे अपने सहज साधना मार्ग में जोड़ते हैं तो केवल अर्थात् मात्र। मात्र दर्शन और मात्र ज्ञान ही अब हमारे भीतर शेष है । इसी साक्षीत्व की दशा से ही अदृश्य सत्य, अस्तित्व के अज्ञात रहस्यों को जानने का रास्ता खुलता है। आगे के रास्ते कैसे खुलेंगे वह तो वहाँ तक पहुँचने वाले साधक को पता चलेगा। अपूर्वकरण की जो स्थिति हमारे भीतर घटित होगी, आठवें गुण स्थान तक जब साधक पहुँचेगा तभी यह बात सधेगी । महावीर ने भी अप्रमत्त गुण स्थान पर जोर दिया है। आगे की घटनाएँ ही तब घटेंगी जब तुम अप्रमत्त बनोगे, अपने प्रमादों का, अपनी मूर्च्छाओं का त्याग करोगे। उस अप्रमत्त दशा को आतापी होकर, संप्रज्ञानी होकर, सचेतन स्मृतिमान होकर साधा जाए । उसी से यह गुण स्थान सधेगा। शुरू में तो अभ्यास करना ही होगा, लेकिन ज्यों ही अभ्यास गहरा होगा - चीज़ पकड़ में आ जाएगी। अनुपश्यना पहले चरण में अभ्यास है, दूसरे चरण में संप्रज्ञान है । वेदनानुपश्यना में वेदना शुद्ध भी होती है और अशुद्ध भी । अशुद्ध वेदनाओं का संवेदन होने पर साधक उन्हें भलीभाँति जानता है कि इस समय काया में अशुद्ध वेदनाओं का उदय हो रहा है या इस समय शुद्ध वेदनाओं का उदय हो रहा है। शरीर में हर समय न तो दुःखद और अशुद्ध वेदनाओं का उदय होता है और न ही सुखद और शुद्ध वेदनाओं का उदय होता है । जैसा कि अभी पूछा गया था 122 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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