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कायानुपश्यना करते हुए ही वेदनानुपश्यना भी होगी। दोनों साथ-साथ चलते हैं। लेकिन जब गहराई में कायानुपश्यना होने लगती है उस समय साधक पूरी तरह सचेतन हो चुका है, स्मृतिमान और आतापी है ऐसी स्थिति में वह अपने शरीर में उठने वाली बारीक-बारीक सूक्ष्म संवेदनाओं का भी संप्रज्ञान करने लगता है और उस समय होने वाली सुखद और दुःखद वेदना की अलग-अलग पहचान कर लेता है । अथवा धीरे-धीरे वह देखता है सुखद वेदनाएँ भी शांत हो गईं, दुःखद वेदनाएँ भी अब शांत हो गईं, दोनों का उदय और विलय भी अब शांत हो गया है, उठता हुआ, भड़कता हुआ सरोवर शांत हो गया है, धधकती हुई ज्वालाएँ भी अब पूरी तरह शांत हो चुकी हैं तब वह पाता है कि काया में अब न सुखद वेदना है, न दुःखद वेदना है। लेकिन फिर भी अहसास तो कायम है तब कहा जाता है असुखद-अदुःखद वेदना।
प्रश्न है कि साक्षी भाव आत्मा का गुणधर्म है या बुद्धि का गुणधर्म ?
अभी मैं यही कहना चाहूँगा कि अभी हम अपनी ओर से आरोपित भावों को बिल्कुल गौण कर दें। जो ठोस अनुभूति में ला सकते हैं उसकी ओर ध्यान दें। साक्षी अर्थात् देखने वाला, दृष्टा, अनुभव करने वाला। क्योंकि अभी जो भी उत्तर होगा वह आरोपित होगा। अनुपश्यना किसी भी प्रकार के आरोपण को स्वीकार नहीं करती। जो है जैसा है खुद ही जानें, कौन है अनुभव करने वाला खुद ही पहचानें । बुद्धि साक्षी बन रही है या आत्मा अथवा चेतना साक्षी बन रही है। अभी तो आत्मा नामक चीज़ आई ही नहीं है, अभी तो हम काया की अनुपश्यना कर रहे हैं, वेदनाओं की अनुपश्यना कर रहे हैं। संभव है वह मानसिक तल पर हो या बौद्धिक तल पर हो या चैतन्य तल पर हो। जितनी बारीकी से हमारी पकड़ में आएगी हम उतना ही समझ पाएँगे।
__ आप पूछ रहे हैं कि आतापी का अर्थ है जो भी पीड़ा-दर्द उठ रहे हैं उसे सहन करते हुए आगे बढ़ना !
ऐसा नहीं है। साधना कभी नहीं कहती तुम दुःखों को सहन करो, दर्द को सहन करो। साधना बताती है तुम आतापी बन जाओ। जैसे ही तुम कायानुपश्यना करने लगोगे तुम्हारे शरीर के दर्द अपने-आप ही मिटने लग जाएँगे। अगर आपकी कमर में दर्द हो रहा है तो वहाँ अनुपश्यना कीजिए और तटस्थ भाव से जानिए कि इस समय यहाँ काया में वेदना का उदय है। मैंने स्वयं ने कई-कई बार वेदनानुपश्यना करते हुए भलीभाँति यह जाना है, यह पाया है
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