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उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति करना, उनके प्रति साक्षीकरण करना । महावीर ने कभी कहा था कि मनुष्य और पशु शरीर के भीतर चार प्रकार की क्रियाएँ चलती रहती हैं- आहार, निद्रा, भय और मैथुन। इन सब की तरंगें चलती रहती हैंप्राणीमात्र के भीतर । कोई इससे अछूता नहीं है। भूख- आहार संज्ञा, निद्रारोजाना नींद आती है, थोड़ा-सा डर लगे कि हमारी चेतना हिल जाती है, मैथुन की प्रकृति- किसी किशोर को सेक्स और भोग के बारे में बताना नहीं पड़ता। काया में ये सब उपद्रव उठने शुरू हो जाते हैं। अगर किसी को लगता है कि आहार, निद्रा, भय या मैथुन में से कोई प्रकृति अधिक है तो अपने आप में घृणा, नफरत, प्रायश्चित के भाव न लाए बल्कि उसे अपने शरीर की सहज व्यवस्था समझे । प्राणीमात्र का यह गुणधर्म है। जो पत्ता पेड़ पर लगता है एक दिन झड़ता भी है यह उसकी प्रकृति है, कोई ख़ास बात नहीं है। न ही इससे निराश होने की ज़रूरत है यह तो प्रकृति है। लेकिन बुद्ध ने कुछ और शरीर की प्रकृतियों को समझाया है। इसे भी हम अपने साथ जोड़ लेते हैं और वे कहते हैं कि हमारे भीतर तीन तरह की वेदनाएँ होती हैं, वेदना अर्थात् अनुभूति । यहाँ वेदना का अर्थ पीड़ा नहीं है। भारतीय संस्कृति के सबसे प्राचीन शास्त्र वेद हैं- यहाँ भी वेद का अर्थ पीड़ा नहीं है- वेद का अर्थ है प्रत्यक्ष ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुभूति । अनुभव करके जो बात कही गई है वह है वेद । यहाँ भी वेदना का अर्थ प्रतिकूल वेदना से नहीं है। बुद्ध कहते हैं- सुखद वेदना, दुःखद वेदना और असुखद, अदुःखद वेदना।
सुखद वेदना अर्थात् सुख देने वाला अहसास, दुःखद वेदना अर्थात् पीड़ा, तनाव खिंचाव का अनुभव कराने वाला अहसास और तीसरी स्थिति है असुखद-अदुःखद- जिसमें भीतर न सुख की स्थिति है और न दुःख की स्थिति है। यह विशिष्ट स्थिति अनासक्ति की है, भेदविज्ञान की है जिसमें व्यक्ति काया के गुणधर्मों से ऊपर उठ गया। इस असुखद-अदुःखद स्थिति से ही व्यक्ति के भीतर बुद्धत्व का प्रकाश फैलता है, उस ओर और आगे बढ़ता है।
हमारे कायारूपी लोक में कभी सुख का अहसास होने लगता है और कभी दुःख का अहसास होने लगता है। हमारे शरीर में कभी तनाव, कभी खिंचाव, कभी दर्द ये सब दुःखद वेदनाएँ हैं। कभी काया में मस्ती, ताज़गी, आनन्द की अनुभूति होती है- ये सुखद वेदनाएँ हैं । कायानुपश्यना भी वेदना के आधार पर ही होती है। वेदनानुपश्यना करते हुए ही कायानुपश्यना करेंगे और
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