SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही चित्त की धाराओं के प्रति स्मृतिमान और संप्रज्ञान कर सकते हैं, तब कायानुपश्यना की आवश्यकता नहीं है। जैसा कि कहा जाता है सबसे ज्यादा विचार ही आते हैं, इसीलिए आते हैं कि हम स्थूल पर ही सजग नहीं हो पाए, सीधे सूक्ष्म से ही लड़ने लग गए । अरे, सामने जो सेना खडी है, उससे तो लड ही नहीं पा रहे हैं और जो अंदर में छिपी हुई सेना है उससे भिड़ने की सोच रहे हैं। चित्त शरीर की बहुत बारीक चीज़ है। हम तो स्थूल काया के वेदन-संवेदनों के प्रति ही सजग नहीं हो रहे हैं, उसी को नहीं पकड़ पा रहे हैं, उसके उदय-विलय को ही नहीं समझ पा रहे हैं तो चित्त के उदय और विलय को साक्षी भाव से कैसे समझ पाएँगे ! साक्षीत्व रहेगा ही नहीं, हम विचारों में बह जाएँगे और साक्षीत्व भी ठंडा हो जाएगा। साधना में तो बैठे, पर भव-भ्रमण किया, चित्त को घुमाते रहे। तुम्हें लगता होगा तुमने ध्यान किया लेकिन जो तुम्हारे चित्त की दशाओं को समझता होगा वह जानता है कुछ नहीं कर रहा, केवल भटक रहा है। बाहर से लगता है यह काया मंदिर है, निश्चित ही मंदिर होगी, पर इसमें भगवान की मूरत नहीं दिखाई देगी। मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भगवान नहीं है। संसार में बहुत से सुंदर मंदिर हैं, उनमें मूरत हो सकती है, पर भगवान नहीं हैं। कायानुपश्यना सचेत करती है कि पहले स्थूल पर जाग्रत होने की कोशिश करो तब चित्त के उदय-विलय पर सचेतनता लाओ, क्योंकि साक्षीत्व साधना पड़ेगा, जागरूकता साधनी पड़ेगी, गहरी शांति को साकार करना होगा। अभी तक तो काया की वेदना, संवेदना ही पकड़ में नहीं आ रही है। जब तक काया के उपद्रव पकड़ में नहीं आएँगे हम चित्त के उपद्रवों को कैसे पकड़ेंगे। काया के उपद्रव; भूख लगी, कुछ महसूस तो हआ। कि नींद आ रही है कुछ महसूस तो होगा, पर चित्त में जो प्रवाह चल रहे हैं वे कैसे पकड़ में आएँगे, उन्हें कैसे महसूस करेंगे। ___ अनुपश्यना की साधना जो भी बाहर-भीतर उठ रहा है, उसका विरोध नहीं कर रही है। केवल साक्षी हो जाती है। विचार हम ला नहीं रहे हैं, शरीर के सुखद-दुःखद संवेदन हम ला नहीं रहे हैं- अपने-आप हो रहा है। बस जो हो रहा है उसके प्रति सचेतन हो रहे हैं। ज़रूरी नहीं है कि विचार लगातार उठते रहें। हो सकता है- बीच में कमर दर्द उठ जाए तब हमारा ध्यान कमर की ओर चला जाए। ध्यान बँटता रहता है। निद्रा, तंद्रा, मूर्छा आ गई इसी के लिए 117 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy