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________________ एक है चिंतन और मनन के तल पर और दूसरा होता है उसकी ठोस अनुभूति के तल पर । चिंतन-मनन में हम कहते हैं- इस शरीर में, काया में क्या है ? - केश, रोम, नख, हड्डी, वीर्य, मज्जा, खून, कफ, पित्त यही सब गंदगियाँ भरी पड़ी हैं। इस तरह की बत्तीस प्रकार की गंदगियाँ हमारी काया में भरी पडी हैंयह चिंतन-मनन है, इसका विचार करना है। लेकिन ठोस अनुभूति अनुपश्यना और अनुप्रेक्षा से होती है। चिंतन-मनन से 20% लाभ होता है लेकिन असली लाभ तो अपनी ठोस अनुभूति पर ही होगा। जैसे कि कहा जाए- कफ़ ! कोई प्रभाव होता है ? नहीं। तभी एक छींक आ जाए और नाक से सेडा निकल आया । सामने बैठा हुआ व्यक्ति क्या देखेगा ? (यह भी अनुपश्यना हो रही है) वह विचिकित्सा करेगा, घृणा करेगा- अर-र-र-गंदगी। अब बोध आया तो यह अनुपश्यना हुई, सामने देखा गया तो सत्य का बोध हुआ। वह अपने भीतर ठोस अनुभूति करता है कि यही सब तो मेरी काया के भीतर भी है। अनुपश्यना और अनुप्रेक्षा को हम चिंतन और ठोस अनुभूति दोनों धरातलों पर देखते हैं। बाहर की गतिविधियों में हम इनका संप्रज्ञान करते हैं लेकिन साधना में इनकी ठोस अनुभूति करने का प्रयत्न और अभ्यास करते हैं। कोई तीन दिन में कायानुपश्यना उपलब्ध नहीं होती और न ही सिर से पाँव तक क्रमिक रूप से इसे किया जाए, ऐसा ज़रूरी नहीं है । तत्त्व को, मार्ग को समझकर कहीं से भी शुरू किया जा सकता है। जब मार्ग समझ में आ जाए कि- श्मशान पर्व है, कि ईर्या पथ पर्व है या प्रतिकूल मनसीकार पर्व है- महासति पट्ठान सूत्त में ये जो अलग-अलग पर्व आए, अध्याय आए- हम लोग इनमें कहीं से भी शुरू कर सकते हैं। सीधे चित्त की अनुपश्यना भी कर सकते हैं। ज़रूरी नहीं है कि कायानुपश्यना भी हो। लेकिन कायानुपश्यना इसलिए करवाते हैं कि काया स्थूल है, चित्त पर लगातार केन्द्रित नहीं रह सकते, उसके उदय-विलय पर पूरी तरह सचेतन नहीं रह सकते । काया हमारी पकड़ में, अनुभूति में, समझ में आ रही है। हम इस पर जागरूक हो सकते हैं। जब कायानुपश्यना सध जाएगी तब चलना तो आगे ही है। मात्र कायानुपश्यना से मुक्ति नहीं मिलने वाली और न ही इससे कोई बुद्धत्व का कमल खिलेगा। करनी तो चित्तानुपश्यना ही है, लेकिन पहले चरण में यह हो नहीं सकती। इसीलिए कहते हैं सबसे पहले आनापान को साधो, फिर कायानुपश्यना को साधो, फिर वेदनानुपश्यना को साधो, उसके बाद चित्तानुपश्यना को साधो । अगर कायानुपश्यना पर पकड़ बन गई है तो हम सीधे 116 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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