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________________ ज़रूरी है कि साधक आरामदायक अवस्था में न बैठे । साधक को पहला शब्द याद रहे- आतापी । अगर हम आतापी, सचेतन और संप्रज्ञानी नहीं होंगे तो इन तीनों में से एक की भी उपेक्षा अनुपश्यना नहीं करने देगी। अनुपश्यना हुई भी तो कमज़ोर होगी और कमज़ोर अनुपश्यना से विलक्षण फलों की आशा नहीं की जा सकती। विलक्षण फलों की प्राप्ति के लिए साधक को आतापी, तपस्वी होना चाहिए। आतापी ही न हुए तो संप्रज्ञानी और सचेतन कैसे होओगे । पहले ही चरण में प्रमाद ने, मूर्च्छा और मोह ने घेर लिया है तो सचेतनता तो गई बहुत दूर । अगर साधक को बैठने से तंद्रा, निद्रा आती है तो खड़े होकर ध्यान करो, अपनी अनुपश्यना करो । साधक को साधना करते समय पल-पल स्मरण रखना चाहिए कि वह क्या कर रहा है । हमारा चित्त हमें तभी भटकाएगा जब हम अपनी स्मृति को, सचेतनता को भूल गए हों। जब हम अपने संकल्प को, हम क्या करने के लिए उद्यत हैं यह भूल जाएँगे तब ही चित्त भटकेगा । हमें पल-पल स्मरण हो कि मैं आतापी हूँ, स्वयं को तपा रहा हूँ, मैं शुद्धि करने के लिए बैठा हूँ, स्वयं को जानने के लिए, अपने भीतर उदय होने वाली हर सच्चाई के साक्षात्कार के लिए बैठा हूँ। जब हमारे भीतर इस प्रकार का प्रगाढ़ बोध होगा तभी हम संप्रज्ञान कर सकेंगे, अपने भीतर पूरी तरह सचेतन हो सकेंगे। क्या हम दुनिया को दिखाने के लिए साधना कर रहे हैं। क्या हम साधना को किसी तरह की आदत बना लिया है कि सुबह उठकर बैठना ही है। आधा-एक घंटा ? क्यों बैठ रहे हैं ? अगर बैठ रहे हैं तो हमारे पास क्या तैयारी होनी चाहिए ? अगर मैं तप नहीं रहा हूँ तो एक घंटा बैठकर क्या करूँगा ? साधक जब साधना कर रहा है तब स्वयं को आतापी बना चुका है। साधक बोध रखता है कि शरीर और चित्त को स्थिर करके इसमें सहज उदित सच्चाइयों का साक्षात्कार करूँगा। अनुपश्यना का मार्ग कोई विरोध नहीं करता । न विकारों का, न सद्विचारों का ! यह पलायन का मार्ग नहीं देता । आँसू भी नहीं ढुलकाता कि अरे मेरे भीतर यह सब क्या-क्या हो रहा है। जो है वह स्वयं का है । सम्यक् प्रकार से, प्रज्ञापूर्वक, ज्ञानपूर्वक, प्रकृष्ट ज्ञानपूर्वक श्रेष्ठ बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए खुद के प्रति जागरूक हो रहा है। उसने अपनी स्मृति को स्वयं के साथ लगा रखा है। चित्त में कोई भाव आ जाए तो शांत, विचार शांत, अभी मैं आतापी हूँ, अभी मैं साधना में बैठा हूँ । अचानक बैठे-बैठे घर की याद भी आ सकती है, 118 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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