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________________ सचेतनता को भलीभाँति स्थापित करने लगते हैं तो महसूस करते हैं कि प्रत्येक श्वासोश्वास पर हमारी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगी है। तब श्वासोश्वास के उदय-विलय का बोध होते ही काया की अनुपश्यना होने लगती है। हमें काया में उठने वाले गुणधर्मों का बोध, इसमें उठने वाली वेदनाएँ, संस्कारों के अपनेआप साक्षी होने लगते हैं, जागरूक होने लगते हैं। जो ध्यान करते हैं वे सचेष्ट होकर कुण्डलिनी-प्रदेश पर ध्यान स्थापित करेंगे या षट्चक्रों पर ध्यान स्थापित करेंगे। आजकल राजयोग, भावातीतध्यान या अन्य जो भी पद्धतियाँ चल रही हैं या प्रेक्षा ध्यान इनमें सभी षट्चक्रों पर ध्यान धरने की बात कहते हैं। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि षट्चक्रों की प्रेक्षा कभी नहीं होती। षट्चक्रों पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है, उसकी प्रेक्षा कभी नहीं हो सकती। प्रेक्षा का अर्थ है अनुपश्यना अर्थात् उस केन्द्र पर जो भी उदय हो रहा है उसके हम साक्षी हो रहे हैं। जबकि ध्यान का अर्थ है हम वहाँ अपने बिखरे हए चित्त को केन्द्रित कर वहाँ की ऊर्जा के घनत्व के साथ स्वयं को जोड़ रहे हैं। कठोपनिषद की भाषा में कहें तो वहाँ पर आनापान करने के बाद वे हृदय पर या बुद्धि रूपी गुफा पर ध्यान धरने की बात कहते हैं। लेकिन यह तो ध्यान की बात है। लेकिन हम यहाँ अनुपश्यना को समझ रहें हैं, ध्यान नहीं। अनुपश्यना या विपश्यना अर्थात् विशेष रूप से पूर्ण जागरूकता के साथ देखना । ___ पूर्ण जागरूकता के साथ देखने पर हम देखते हैं कि आनापान सधने के बाद प्रत्यक्ष अनुभूति होगी कि हमें अपनी काया का भी अनुभव होने लगा है। इसकी बारीकियों से ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ने लगे हैं। इसके अन्दर होने वाले सहज उदय-विलय को पकड़ने में भी सफल होने लगे हैं। सामान्य रूप से तो जब शरीर में कोई चीज़ अत्यंत प्रगाढ़ होगी तब ही हमें अनुभव में आएगी लेकिन अनुपश्यना करते हुए बारीक से बारीक चीज़ भी पकड़ में आने लगेगी। जैसे सागर में लहरें उठती हैं या पानी के बुदबुदे उठते हैं ऐसे ही हमारी काया में भी अलग-अलग प्रकृति के उदय और विलय चलते रहते हैं। लेकिन यह सब पहले दिन ही पकड़ में नहीं आएगा पर अगर आनापान सध जाए तो हमें बोध होने लगता है कि हर साँस अनित्य है और दूसरा बोध यह कि हर साँस अखंड है. तीसरा बोध यह कि हर साँस में ताज़गी है, हर साँस नई है। हम कोई भी साँस पुरानी नहीं लेते, न ही पुराना जीवन जीते हैं। कल रात जो जीवन जिया था क्या अब भी वही जीवन जी रहे हैं ? हर श्वास हर पल नई है, ताज़गीभरी है। 114] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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