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लेकिन स्वयं से नहीं। स्वयं से जुड़ने का एकमात्र मार्ग आनापान-योग है। आनापान-योग करते हुए साधक अपनी काया की अनुपश्यना करने में भी सफल होता है।
सामान्यतः आनापान करते हुए साधक के सामने दो रास्ते प्रकट होते हैं(1) ध्यान (2) अनुपश्यना । इन दोनों में फर्क है। ध्यान का अर्थ है- चित्त की एकाग्रता और अनुपश्यना का अर्थ है- स्वयं के भीतर जो भी उदय-विलय हो रहा है उसका साक्षी होना, उसका लगातार दर्शन करना और भलीभाँति जानना । ध्यान में जो हो रहा है उस पर गौर नहीं किया जाता, वरन् उसे जो होना है उस लक्ष्य की ओर स्वयं को तत्पर करता है। ध्यान में अपने चित्त को ऐसे तत्त्व के प्रति केन्द्रित करना है जो हमारा लक्ष्य है। जैसे- प्रभु की मूरत पर ध्यान करना, श्वासोश्वास के साथ 'ॐ' का ध्यान करना, अपने ही ज्ञान प्रदेश, हृदय प्रदेश या नाभिकेन्द्र पर ध्यान करना अर्थात् अपने चित्त को स्थिर और एकाग्र करने का प्रयत्न करना- यह ध्यान का अभ्यास हआ और अनुपश्यना में चित्त को प्रयासपूर्वक केन्द्रित नहीं किया जाता बल्कि जो उदय या विलय हो रहा है उसका वह साक्षी होता है। व्यक्ति के सामने स्पष्ट होना चाहिए कि वह ध्यान कर रहा है या अनुपश्यना । वह अपने भीतर उठने वाले विकार, कषाय, वेदन, संवेदनों पर अपनी अनुपश्यना करना चाहता है, उन्हें भलीभाँति जानना चाहता है या ध्यान करना चाहता है। क्योंकि ध्यान में आरोपण भी हो सकता है लेकिन अनुपश्यना में आरोपण नहीं होता जो सहज उदय में है उसका साक्षी होता है। हम वेदना या संवेदना उत्पन्न नहीं कर सकते । अनुपश्यना वर्तमान क्षण में जीने का तरीका है, सत्य से साक्षात्कार करने का तरीका है। फिर वह सत्य चाहे काया का हो, वेदना का हो, चित्त या चित्त के संस्कारों का हो।
पहले दिन, पहले चरण में साधक को न तो ढंग से आनापान होता है, और न ही काया की अनुपश्यना । लेकिन सहज सतत् प्रयत्न करने से सफलता मिल जाती है। जब आप साधना के लिए बैठे तो पहले बीस लम्बे गहरे श्वास, फिर बीस सहज श्वास, फिर बीस मंद-मंद श्वास लें। बीस मिनट तक इस क्रम को दोहराते रहें। पहली बैठक में साँस थोड़ी-थोड़ी पकड़ में आएगी, चित्त ज्यादा भटकेगा। दूसरी बैठक में साँस थोड़ी पकड़ में आने लगेगी। तीसरी बैठक में चित्त इतना भटकेगा कि साँस पर टिकेगा ही नहीं। लेकिन जैसे-जैसे श्वासोश्वास पर जागरूक होते हैं, आनापान करते हैं, अपनी स्मृति को,
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