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________________ कपड़े से क्यों ढंका है, ये लोग इन्हें कहाँ ले जा रहे हैं ? पीछे-पीछे वह भी चला, श्मशान पहुँचा । वहाँ पर वह एक पेड़ पर चढ़कर देखने लगा कि यह सब क्या हो रहा है। लाश को चिता पर चढ़ाकर आग लगा दी जाती है, घी डाला जाता है, लाश धूं-धूं कर जल उठती है। वह पेड़ पर बैठा-बैठा सारा दृश्य देखता रहता है। जलती चिता को देखना सत्य से साक्षात्कार करने का महान यज्ञ है। लोग चले जाते हैं, बच्चा फिर भी वहीं बैठा रहता है। चिंतन करता है, उसे समझ में आता है कि यह है काया ! यह है जीवन और जीवन की अनित्यता वहीं बैठे हुए बालक को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो आता है, विशिष्ट ज्ञान प्राप्त हो जाता है, बोधि-लाभ अर्जित हो जाता है। साधक अपनी काया के तत्त्वों को समझे, उसमें होने वाले उपद्रवों को भी समझे, काया के प्रपंचों को, वर्तमान कमजोरियों को समझे और देखे कि वह अपनी काया, साँस, आनापान की किस तरह से साधना कर सकता है। हमें अधिक से अधिक साक्षी भाव को विकसित करना होता है। सभी को श्मशान जाने की ज़रूरत नहीं है । श्मशान-पर्व केवल उन्हीं के लिए है, जिनके मन की अवस्थाएँ अत्यन्त दूषित हैं। अन्यथा सहज ही साधना और अनुपश्यना हो जाती है। हमें अनुपश्यना, आनापान और आत्म-साधना ही करना है। समाधि हम प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि चित्त के दूषित तत्त्व प्रभावित करते रहते हैं। इन दूषित तत्त्वों से मुक्त होना पहली अनिवार्यता है। जैसे ही लगे कि विचार शांत हो गए हैं, पुनः आनापान और साक्षीभाव आने लगता है। जो भीतर का साक्षी नहीं हो पाता उसे ही अलग-अलग प्रकार के ध्यान करने होते हैं। जिन्हें सहज में ही आनन्द है, शांति, मौन, मुक्तदशा है उन्हें इनमें से किसी भी चीज़ को करने की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन अभी हम इस अवस्था तक नहीं पहुँचे हैं और हमें ध्यान-साधना की आवश्यकता है। किसे कौन-सी पद्धति उपयुक्त है, यह उसकी चित्त की अवस्था को देखकर ही जाना जा सकता है। साधक को साक्षी भाव अधिक से अधिक विकसित करना होता है और अपने भीतर के दुःखदौर्मनस्य का अवसान करना होता है और अपनी मोह-वासनाओं से ऊपर उठना होता है। आप सभी अपने-अपने सत्य से साक्षात्कार कर सकें इसी मंगलभावना के साथ- नमस्कार ! 106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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