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रहा है वैसा ही मेरी काया का भी हो सकता है। मेरा शरीर, मेरी आत्मा, चेतना, प्राणों के निकल जाने पर जैसे एक दिन पुरानी लाश दिखाई दे रही है, वैसी मेरे शरीर की दशा होगी।
पदयात्रा करते हुए, सड़क पर चलते हुए हम लोगों ने कई बार कितने ही पशुओं को मरा पड़ा देखा है। उसका पेट फूल रहा है, आँतें फट जाती हैं। कुत्ते, चील, गिद्ध, कौए उस लाश को नोचते हैं। ऐसी स्थिति में साधक नाक-भौंह न सिकोड़े बल्कि दो मिनिट वहाँ खड़ा रहकर उसे भलीभाँति देखे, समझे, चिंतन करे और जाने कि यह है काया ! यह आत्मा का बड़ा ऑपरेशन है। ऐसे लोगों को केवल सत्संग काम नहीं आता, गुरुवाणी काम नहीं आती। जो दूषित, कुत्सित और कुंठित मन के हैं उन्हें तो श्मशान में जाकर बैठना चाहिए। ऐसे लोगों के लिए मंदिर, मस्जिद किसी काम के नहीं हैं । देवी के मंदिर में भी उनकी मनोदशाएँ ...... ! गिद्ध आकाश में कितनी अधिक ऊँचाई पर उड़ता है, पर उसकी नज़र ज़मीन पर पड़े माँस के लोथडे, लाशों को ही देखती रहती है। व्यभिचारी भी गिद्ध के समान होते हैं। चोर की नज़रें चोरी पर, जुआरी की नज़रें जए पर और व्यभिचारी की नजरें स्त्री या पुरुषों पर लगी रहती हैं। श्री भगवान कहते हैं ऐसे लोगों को श्मशान में दो-दो महीने रहना चाहिए।
___ हमारे देश में हिन्दू समाज की एक परम्परा है कि मृत देह को जलाने के बाद उसकी अस्थियाँ एकत्रित कर किसी पवित्र नदी या समुद्र में प्रवाहित कर दी जाती हैं। यह एक श्रेष्ठ परम्परा है लेकिन इसका आध्यात्मिक अर्थ समझें । जब श्मशान जाएँ तो समझें कि यह है काया। हम अपने परिजनों को कितना प्यार करते हैं लेकिन लाश को देखकर जानें कि व्यर्थ ही प्यार करता था। यह तो जलकर राख में परिणत हो गया। जलती हुई लाश को देखकर वहाँ ध्यान करें। जीवन में साधना करने के लिए, ध्यान धरने के लिए, अनुपश्यना करने के लिए, सत्य से साक्षात्कार करने के लिए जलती हुई लाश से बेहतर और बढ़िया, साधन नहीं है। उसे देखें और समझें। सम्यक् दर्शन करें, सम्यक् ज्ञान करें। इसी से मुक्ति-पथ प्रशस्त होगा।
श्रीमद् राजचंद्र, जिन्हें गाँधीजी ने भी अपना गुरु माना, उनकी अध्यात्म-साधना की शुरुआत ऐसे ही हुई। उनके काका का निधन हो गया। परिवार के लोग उन्हें जलाने के लिए ले जाने लगे। बालक राजचंद्र ने सोचा इन्होंने हमारे काका को रस्सियों से क्यों बाँधा है, लकड़ियों पर क्यों लिटाया है,
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