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भोजन में 10 द्रव्यों से ज्यादा ग्रहण नहीं करेंगे। यह जिह्वा का संयम हुआ। व्रत-उपवास नहीं होते, पर आहार-संयम तो हो ही सकता है। भोग की दहलीज पर क़दम रखें तो अगले सात दिन के लिए संयम रखूगा। पहले सप्ताह-सप्ताह का संयम रखें, फिर पखवाड़ा और महीने का। जब लगे, हम वर्षभर संयम से जीने में सफल हो गए, तो घर में रहते हुए भी संन्यासी बन जाएँ। महावीर और बुद्ध बन जाएँ।।
हमें ऐसे स्थानों पर जाने से बचना चाहिए जहाँ जाकर मन में विकारों की प्रबलता बढ़ती है। विवाह के बाद नव-विवाहित घूमने के लिए हिल स्टेशनों पर जाते हैं। मेरा मानना है कि सद्विचार वाले लोगों को ऐसे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए। वहाँ के होटलों में जाकर दूषित भावना ही उत्पन्न होती है। सैक्सी वातावरण में जाओगे, तो सैक्स और भड़केगा ही। आप धर्म स्थानों पर तीर्थयात्रा के लिए परिवार के साथ जाएँ, आपका भावी जीवन निर्मल रहेगा, सुख-शांति, प्रेम और धर्ममय रहेगा।
तीसरी किस्म के लोगों का मन और उनकी काया अत्यधिक दूषित विचारों, संस्कारों, संवेदनाओं से भरी होती है कि उन्हें मंदिर में भी मदिरालय नज़र आता है। ऐसे लोगों को गहन चिकित्सा की आवश्यकता है। उनके लिए छोटी-मोटी साधना-पद्धतियाँ काम नहीं आती। उनका मोक्ष और निर्वाण भी एक बड़ी तपस्या है। उनके लिए भगवान ने जो कहा वह साधना श्मशान-पर्व से जुड़ी हई है। अर्थात् ऐसे साधक को श्मशान में जाना चाहिए और वहाँ बैठकर अपनी साधना करनी चाहिए। हालांकि वह वहाँ भी इतनी जल्दी साधना न कर पाएगा। वहाँ भी उसके अन्दर कुछ और चलने लगेगा । वह सबसे पहले तो यही सोचेगा कि कहाँ आ गया ? ऐसे लोगों के लिए श्री भगवान कहते हैं- वह श्मशान में जाए, एक दिन रहे, दो दिन रहे, पाँच दिन रहे, दस दिन रहे,
आवश्यकता होने पर दो महीने तक लगातार रहे और अपने सामने पड़ी हुई एक दिन पुरानी लाश को देखे, दो दिन पुरानी लाश को देखे, तीन दिन पुरानी लाशों को देखे, फूली हई लाशों को देखे, सड़े हए मरियल कुत्तों को देखे। जिन जानवरों के शरीर फूल चुके हैं, उनको देखे। ऐसी लाशें जिन्हें कोई जलाने वाला नहीं है, उन लाशों को वह देखे। उनके शरीर में हो चके घावों को देखे। कुत्ते और गीदड द्वारा नोचे गए घावों को देखे और भलीभाँति चिंतन, मनन, विचार करे, देखे, जाने और ठोस अनुभूति करे कि जैसा हाल इस काया का हो 104
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