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राम, कृष्ण या महावीर की पूजा करते हैं तो क्या उनकी काया की पूजा करते हैं ? नहीं। हम तो उनकी आत्मा की, उनके त्याग की, उनके महान सद्कर्मों की, महाकरुणा और मर्यादाओं की पूजा करते हैं। जब आप मेरे पास आते हैं
और मुझे नमन करते हैं तो क्या आप इस काया को, इस वेश को नमन करते हैं ? अरे काया में क्या है ? वेश में भी क्या रखा है ? व्यक्ति के गुणों को नमन किया जाना चाहिए, उसके अंदर जो ताकत है उसका अभिनंदन हो ! शेष तो सभी की काया एक जैसी है।
पति ने पत्नी से कहा- हर रोज क्यों इतनी लिपिस्टिक लगाती हो ? आधी तो तुम्हारे पेट में ही चली जाती होगी ! पत्नी ने झट से किचोटी भरते हए कहा- क्यों टोंट कसते हो ? चौथाई तो आपके पेट में भी जाती होगी।
सब एक जैसे हैं। सबकी ऐसी ही मिलती-जुलती कहानी है। हमें संयम की ओर विश्वास के क़दम बढ़ाने चाहिए। मुक्त रहना या मुक्त होना अच्छी बात है, पर अगर अभी मुक्त हो ही नहीं पा रहे, तो कोई बात नहीं, ज़िंदगी में एक उम्र निर्धारित कर लो कि अमुक उम्र के बाद शांति धारण कर लेंगे, अमुक उम्र के बाद पवित्रता से रहेंगे, पवित्रता को जिएँगे। भले ही वह उम्र 50 की करो, 60 की करो, 70 की करो, पर कर लो। पहले ज़माने में 100 की उम्र होती थी, तो लोग 50 की उम्र में फ्री हो जाते थे। गृहस्थी में क़दम रखा है तो क्या मरते दम तक भोग की ही खिड़कियाँ खोलते रहेंगे ? अब औसत उम्र 70 की मानें तो 35 छोड़ो, 50 छोड़ो, 60 में तो फ्री होने का संकल्प धारण कर लो। कोई ययाति-आत्मा है, तो 60 को भी हटाओ, 65-70 की उम्र में तो मुक्त हो ही जाओ। क्या बताएँ, दाँत गिर गए, पर भोग के भाव नहीं गिरे । बाल सफेद हो गए, मगर दिल अभी भी काला है। मृत्यु हमें मुक्त करने जा रही है, पर हम मुक्त होने का नाम ही नहीं लेते। जो चीज़ हमें 36 में पा लेनी चाहिए, हम 63 में भी उसे नहीं पा रहे हैं।
सोचो, सोच-सोचकर सोचो कि जो मन 36 साल में, 63 साल में तृप्त न हुआ, क्या वो अब हो पाएगा ? अभी से अभ्यास में लेना शुरू कर दें। शाम को रसगुल्ले-राजभोग खाए, बड़े चटकारे-ले-लेकर, पर सवेरे वाली गाड़ी से क्या निकला ? अशुचिता पर गौर करें और इस तरह आत्म-मनन करके स्वयं को भोजन और भोगों के प्रति रहने वाली लिप्सा से मुक्त करें। भोजन के बारे में संयम-दिन में 2 बार या चार बार से ज़्यादा मुँह जूठा नहीं करेंगे। एक बार के
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