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________________ वास्तविक रूप से अनुपश्यना करते हैं और अपनी धातुओं को, संवेदनों को, शीतल-ऊष्ण अहसासों को देखते हैं, विचार और चिंतन-मनन भी करते हैं। ठोस अनुभूति प्राप्त करने के लिए इन सबसे गुजरना होता है। तभी ठोस सत्य से साक्षात्कार होता है। जिनके भीतर सामान्य से अधिक मोह का, भोग का भाव है उनके लिए श्री भगवान कहते हैं- ऐसे व्यक्ति पुनः पुनः चिंतन, मनन, अनुपश्यना करें, पुनः पुनः ठोस सत्य को समझने का प्रयत्न करें कि इस शरीर में क्या है ! वह चिंतन करे कि इस शरीर में अशुचिता है, गंदगी है, मल-मूत्र, मवाद, माँस-मजारुधिर आदि भरा हुआ है। पता नहीं क्यों, हमें प्रभु जितने प्रिय होते हैं, उससे अधिक अशुचिताएँ, गंदगियाँ पसंद होती हैं। हमें अपनी बाह्य देह तो दिखाई देती है, पर इसके अंदर क्या-क्या भरा है, वह नज़र नहीं आता। हमारा जन्म जिस माँ की कोख से होता है, वहाँ भी गंदगी ही होती है। प्रजनन-प्रक्रिया भी गंदगी का ही मिलाप है। हमारे भाव भी गंदगी के ही रहते हैं। गंदगी में ही जीते हैं और गंदगी में ही मर जाना पसंद करते हैं। हमें तो मरते समय भी भगवान याद नहीं आते। तब भी पति या पत्नी ही याद आती है। माँ-पिता भी याद नहीं आते, बच्चे याद आते हैं, भाइयों को तो कौन पूछे ! यह जीवन की सच्चाई है। इन्सान के जीवन में जो दूसरी स्थिति बनती है, ऐसे लोगों के लिए श्री भगवान कहते हैं उन्हें चिंतन और मनन करना चाहिए, उन्हें बार-बार सोचना चाहिए-सहजात्म स्वरूप परमगुरु- आत्मा का सहज स्वरूप ही मेरा परम गुरु है, मुझे अब आत्म-उद्धार के लिए लग जाना चाहिए। मेरे लिए क्या परिवार, क्या पति, क्या पत्नी ! ___मौत आए उससे पहले एक बार मर जाना है। मौत आई तो हमें पूरी तरह मारकर चली जाएगी। लेकिन इससे पहले अपनी दुनियादारी से मर जाओगे तो सचमुच अपनी मुक्ति का प्रबंध कर सकोगे, प्रभु को सच्चा प्रेम कर सकोगे। नहीं तो वही संसार और उसके भोग याद आते रहेंगे। गुरु गोरखनाथ कहते हैं : ‘मरो हे जोगी मरो।' मोह की धारा को तोड़ो, नहीं तो यह बहुत कष्ट देगा, बहुत रुलाएगा। दूसरे किस्म के लोग जो ज्यादा मोह में, वासना में पड़े हैं, भगवान उनके लिए कहते हैं तुम सोचो, विचार करो और देखो कि इस काया में क्या है ! महापुरुषों की काया में और हमारी काया में कोई फ़र्क नहीं है। सभी की काया एक जैसी है। सबकी काया अन्नधर्मा, रोगधर्मा, भोगधर्मा, मरणधर्मा है। आज हम जो 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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