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________________ कर पाते, जैसे ही वे शांति से बैठते हैं उनके भँवरजाल उठने लगते हैं। उसकी पुरानी यादें, उसके भोग, उसकी वासनाएँ, उसकी तृष्णा सब चक्कर लगाने लगती हैं। सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए श्री भगवान कहते हैं- वह व्यक्ति भलीभाँति अपने-आप में जाने, भलीभाँति अपने-आप में चिंतन करे, भलीभाँति जगत के पदार्थों को समझते हुए देखे कि इस काया में क्या है। इस काया में है पृथ्वी धातु, जल धातु, अग्नि धातु, वायु धातु । और इस काया में क्या है । जिनमें सामान्य मोह और भोग की वासना होती है, वे भलीभाँति सोचते भी हैं, चिंतन भी करते हैं और देखते भी हैं। हमारा शरीर पंचतत्त्वों से बना है, तुलसीदासजी कहते हैं क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंचभूत रचित अधम शरीरा। साधक इन पाँच तत्त्वों को देखता है कि ये क्या है ? हड्डियाँ हमारे शरीर का ठोस पदार्थ हैं- यह पृथ्वी धातु है। शरीर में बहता हुआ रक्त, मूत्र-जल धातु है। कभी हमें गर्मी का तो कभी शीतलता का अहसास होता है, और तो और अगर हम अपनी श्वास पर ध्यान दें तो पाएंगे कि दाएँ नासापुट से चलने वाली श्वास गर्म होती है और बाईं नासिका से चलने वाली श्वास ठंडी होती है। ऊष्णता और शीतलता का अहसास अग्नि धातु है। जैसे बिजली से हीटर भी चलता है और ए.सी. भी, दोनों के पीछे एक ही ऊर्जा कार्य करती है। हमारे शरीर की अग्नि-धातु कभी हमें सर्दी का और कभी गर्मी का अहसास देती है। भोजन पचने की व्यवस्था भी अग्नि का कार्य है, जठराग्नि भी अग्नि धातु है। चौथी धातु वायु है। हमारा श्वसन तंत्र वायु से संचालित होता है। हमारे शरीर में पाँच प्रकार की वायु होती है- पान, अपान, समान, व्यान और उदान । एक वायु हमारी छाती में, हृदय में भरी रहती है, दूसरी हमारे पेट में मलद्वार की ओर भरी रहती है, तीसरी वायु छाती से ऊपर मस्तक के भाग तक व्याप्त रहती है, चौथी वायु सूक्ष्म रूप से हमारे पूरे शरीर में व्याप्त होती है। साधना में उतरने वाला व्यक्ति कायानुपश्यना करता हुआ जानता है कि उसकी काया में चार प्रकार की धातु व्याप्त है और वह इन धातुओं के बारे में भलीभाँति चिंतन और मनन भी करता है। वह देखता भी है और स्वयं में अनुभव भी करता है। चौबीसों घटेन हम चिंतन कर सकते हैं, न देख सकते हैं, न ही समझ सकते हैं। इसीलिए जब ध्यान में उतरते हैं तब 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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