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________________ है- धिक्कार है तुम्हें । तुम मेरे देवर होकर इस तरह की कुत्सित, गलत, दूषित, व्यभिचारपूर्ण बात रखते हो ? सोचो, तुम्हारे बड़े भाई ने तो मेरा त्याग कर दिया और तुम त्यागी हुई चीज को पुनः ग्रहण करने को आतुर हो रहे हो? एक कुत्ता ही स्वयं का या दूसरे का वमन किया हुआ ग्रहण करता है । तुम मेरे देवर हो या संत हो या उस श्वान की श्रेणी में हो ? फिर भी रथनेमि पुनः अनुनय-विनय करता है। राजुल कहती है- रथनेमि तुम उस निकृष्ट साँप की तरह हो, जो अपना या दूसरे का विष भी दुबारा ग्रहण कर लेता है। तुम्हें तो उस विषगंधा सर्प की तरह बनना चाहिए जो किसी भी स्थिति में अपने या दूसरे के द्वारा छोड़े गए विष को ग्रहण नहीं करता चाहे मरना ही क्यों न पड़ जाए। राजुल के वचनों को सुनकर रथनेमि स्तब्ध रह जाता है। राजुल कहती चली जाती है- रथनेमि, अपने बड़े भाई को देखो जो गिरनार की गोद में किसी शिखर पर बैठकर साधनारत है और तुम जो संत बन चुके हो और क्या करने जा रहे हो ! मैं तुम्हारे भाई की दासी, उनकी सेवा करने जा रही हूँ और तुम गुफाओं के सघन अंधकार में भी अपने मन को ठीक नहीं कर पाए ! सोचो यह तो मैं तुम्हारी भाभी निकली, अन्य कोई होती तो ? जैसे कुएँ पर रहट स्थिर नहीं रहता उसी तरह अगर तुम्हारा चित्त स्थिर न रहा तो तुम साधना कैसे कर पाओगे ? राजुल के वचनों को सुनकर रथनेमि आत्म-जाग्रत हो जाता है। भाभी के सामने प्रायश्चित करता है और भाभी के साथ अपने बड़े भाई के पास जाता है और अपने द्वारा किए गए कृत, कारित और अनुमोदित शब्द तथा भावधाराओं के लिए प्रायश्चित करता है और अपनी मुक्त तथा कैवल्य दशा को उपलब्ध करता है। इस तरह कुछ लोग सामान्य भोग वासनाओं से ग्रसित होते हैं, कुछ उनसे अधिक ग्रस्त रहते हैं लेकिन कुछ अत्यधिक प्रगाढ़ दूषित मानसिकता वाले होते हैं जो किसी भी गलत कार्य को करते हुए हिचकिचाते नहीं हैं। उनके लिए, नियम, संयम, मर्यादा के कोई मायने नहीं होते, न ही पवित्रता का कोई अर्थ होता है। एक आदर्श स्थिति होती है कि नहीं गिरना चाहिए, लेकिन दूसरी स्थिति होती है यथार्थ जिसमें इन्सान बार-बार गिर जाता है । साधक जो साधना के लिए तत्पर हैं उनमें से कुछ की धाराएँ पहले से ही निर्मल होती हैं। इस कारण वे शीघ्र ही अपने उदय और विलय से साक्षात्कार करने लगते हैं। लेकिन कुछ लोग अपने शरीर के गुणधर्मों की अनुपश्यना नहीं कर पाते । वे आनापान नहीं 1000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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